Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, २९.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गदिमग्गणापरवणं
[२२७ अतीतसूत्रोक्तार्थविशेषप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रचतुष्टयमाह
तिरिक्खा सुद्धा एइंदियप्पहुडि जाव असण्णि-पंचिंदिया त्ति ॥२९॥
एकमिन्द्रियं येषां त एकेन्द्रियाः। प्रभृतिरादिः, एकेन्द्रियान प्रभृति कृत्वा, अध्याहृतेन कृत्वेत्यनेनाभिसम्बन्धादस्य नपुंसकता । असंज्ञिनश्च ते पञ्चेन्द्रियांश्च असंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः । यत्परिमणामस्येति यावत् । यावदसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः शुद्धास्तिर्यश्चः । किमित्येतदुच्यत इति चेन्न, अन्यथामुष्यां गतावेकेन्द्रियादयोऽसंज्ञिपश्चेन्द्रियपर्यन्ताः वर्तन्त इत्यवगमोपायाभावतस्तदवजिगमयिषायै एतत्प्रतिपादनात् ।
असाधारणतिरश्चः प्रतिपाद्य साधारणतिरश्चां प्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाहओंका इच्छासे आधार-आधेयभाव बन जाता है। अर्थात् जब सामान्यरूपसे जाने गये गुणस्थान विवक्षित होते हैं तब वे आधार-भावको प्राप्त हो जाते हैं और मार्गणाएं आधेयपनेको प्राप्त होती हैं। उसीप्रकार जब सामान्यरूपसे जानी गई मार्गणाएं विवक्षित होती हैं तब वे आधारभावको प्राप्त हो जाती हैं और गुणस्थान आधेयपनेको प्राप्त होते हैं। इसलिये भूतबलि और पुष्पदन्त आचार्योंके वचनोंमें कोई विरोध नहीं समझना चाहिये।
अब पूर्व सूत्रोंमें कहे गये अर्थके विशेष प्रतिपादन करनेके लिये आगेके चार सूत्र कहते हैं
एकेन्द्रियसे लेकर असंही पंचेन्द्रिय तकके जीव शुद्ध तिर्यंच होते हैं ॥ २९ ॥
जिनके एक ही इन्द्रिय होती है उन्हें एकेन्द्रिय कहते हैं । प्रभृतिका अर्थ आदि है। 'एकेन्द्रियको आदि करके ' इसप्रकारके अर्थमें, अध्याहृत 'कृत्वा' इस पदके साथ 'एकेन्द्रियप्रभृति' इस पदका संबन्ध होनेसे इस पदको नपुंसक-लिंग कहा है। जो असंही होते हुए पंचेन्द्रिय होते हैं उन्हें असंही-पंचेन्द्रिय कहते हैं। जिसका जितना परिमाण होता है, उसके उस परिमाणको प्रगट करनेके लिये 'यावत्' शब्दका प्रयोग होता है। इसप्रकार असंही पंचेन्द्रिय तकके जीव शुद्ध तिर्यंच होते हैं।
शंका-इसप्रकारका सूत्र क्यों कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि, यदि उक्त सूत्र नहीं कहते तो ' इस (तिर्यंच) गतिमें ही एकेन्द्रियको आदि लेकर असंज्ञी पंचन्द्रियतकके जीव होते हैं। इस बातके जाननेके लिये कोई दूसरा उपाय नहीं था। अतः उक्त बातको जतानेके लिये ही उक्त सूत्रका प्रतिपादन किया गया है।
असाधारण (शुद्ध) तिर्यंचोंका प्रतिपादन कर अब साधारण (मिश्र) तिर्यंचोंके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org