Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मग्गणासरूववण्णणं
[१५१ तद्विपरीतोऽभव्यः । सुगममेतत् ।
प्रशमसंवेगानुकम्पास्तिक्यामिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्वम् । सत्येवमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्याभावः स्यादिति चेत्सत्यमेतत् शुद्धनये समाश्रीयमाणे । अथवा तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अस्य गमनिकोच्यते, आप्तागमपदार्थस्तत्वार्थस्तेषु श्रद्धानमनुरक्तता सम्यग्दर्शनमिति लक्ष्यनिर्देशः । कथं पौरस्त्येन लक्षणेनास्य लक्षणस्य न विरोधश्चेनैष दोषः, शुद्धाशुद्धनयसमाश्रयणात् । अथवा तत्वरुचिः सम्यक्त्वं अशुद्धतरनयसमाश्रयणात् । उक्तं च
__ जिन्होंने निर्वाणको पुरस्कृत नहीं किया है उन्हें अभव्य कहते हैं। इसका अर्थ सरल है।
प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्यकी प्रगटता ही जिसका लक्षण है उसको सम्यक्त्व कहते हैं।
शंका-इसप्रकार सम्यक्त्वका लक्षण मान लेने पर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानका अभाव हो जायगा ?
समाधान-यह कहना शुद्ध निश्चयनयके आश्रय करने पर ही सत्य कहा जा सकता है। __ अथवा, तत्वार्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि आप्त आगम और पदार्थको तत्वार्थ कहते हैं। और उनके विषयमें श्रद्धान अर्थात् अनुरक्ति करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं। यहां पर सम्यग्दर्शन लक्ष्य है । तथा आप्त, आगम और पदार्थका श्रद्धान लक्षण है।
शंका-पहले कहे हुए सम्यक्त्वके लक्षणके साथ इस लक्षणका विरोध क्यों न माना जाय ? अर्थात् पहले लक्षणमें प्रशमादि गुणोंकी अभिव्यक्तिको सम्यक्त्व कह आये हैं और इस लक्षणमें आप्त आदिके विषयमें श्रद्धाको सम्यक्त्व कहा है। इसलिये ये दोनों लक्षण भिन्न भिन्न अर्थको प्रगट करते हैं, इन दोनों में अविरोध कैसे हो सकता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, शुद्ध और अशुद्ध नयकी अपेक्षासे ये दोनों लक्षण कहे गये हैं । अर्थात् पूर्वोक्त लक्षण शुद्धनय की अपेक्षासे है और तत्वार्थश्रद्धान रूप लक्षण अशुद्धनयकी अपेक्षासे है, इसलिये इन दोनों लक्षणोंके कथनमें दृष्टिभेद होनेके कारण कोई विरोध नहीं आता है।
___ अथवा तत्वरुचिको सम्यक्त्व कहते हैं। यह लक्षण अशुद्धतर नयकी अपेक्षा जानना चाहिये । कहा भी है
१ प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्याभिव्यक्तलक्षणं प्रथमं ॥ रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः । संसारागीरता संवेगः । सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकंपा । जीवादयोऽर्था यथास्वभावैः सन्तीति मतिरास्तिक्यम् । एतैरभिव्यक्तलक्षणं प्रथमं सरागसम्यक्त्वमित्युच्यते । त. रा. वा. १, २, ३०.
२ प्रतिषु · श्रद्धानमुक्तता' इति पाठः।
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