Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२०८] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, १, २६. समुत्पद्यमानसंशयनिरोधार्थः । बद्धायुरसंयतसम्यग्दृष्टिसासादनानामिव न सम्यग्मिथ्यादृष्टिसंयतासंयतानां च तत्रापर्याप्तकाले सम्भवः समस्ति तत्र तेन तयोविरोधात् । अथ स्यात्तिर्यश्चः पञ्चविधाः, तियश्चः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चः पञ्चेन्द्रियपर्याप्ततिर्यञ्चः पञ्चन्द्रियपर्याप्ततिरश्च्यः पञ्चेन्द्रियापर्याप्ततिर्यञ्च इति । तत्र न ज्ञायते केमानि पञ्च गुणस्थानानि सन्तीति ? उच्यते, न तावदपर्याप्तपञ्चेद्रियतिर्यक्षु पञ्च गुणाः सन्ति, लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणासम्भवात् । तत्कुतोऽवगम्यत इति चेत् 'पंचिंदिय-तिरिक्ख अपजत्त-मिच्छाइट्ठी दबपमाणेण केवडिया, असंखेजा' इदि, तत्रैकस्यैव मिथ्यादृष्टिगुणस्य संख्यायाः प्रति
पांच गुणस्थानोंमें होते हैं' इस सामान्य वचनसे संशय उत्पन्न हो सकता है कि वे पांच गुणस्थान कौन कौन हैं, इसलिये इस संशयको दूर करनेके लिये मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानाका नाम-निर्देश किया है।
जिसप्रकार बद्धायुष्क असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादन गुणस्थानवालोंका तिर्यंचगतिके अपर्याप्तकालमें सद्भाव संभव है, उसप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतोंका तिर्यंचगतिके अपर्याप्तकालमें सद्भाव संभव नहीं है, क्योंकि, तिर्यंचगतिमें अपर्याप्त कालके साथ सम्यग्मिथ्या दृष्टि और संयतासंयतका विरोध है।
शंका-तिर्यंच पांच प्रकारके होते हैं, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रियपर्याप्त-तिर्यंच, पंचेन्द्रिय-पर्याप्त-तिर्थचनी और पंचेन्द्रिय-अपर्याप्त-तिर्यच । परंतु यह जाननेमें नहीं आया कि इन पांच भेदों से किस भेदमें पूर्वोक्त पांच गुणस्थान होते हैं ?
समाधान--उक्त शंका पर उत्तर देते हैं कि अपर्याप्त-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचोंमें तो पांच गुणस्थान होते नहीं हैं, क्योंकि, लब्ध्यपर्याप्तकोंमें एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानको छोड़कर शेष गुणस्थान ही असंभव हैं।
शंका-यह कैसे जाना कि लब्ध्यपर्याप्तक पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें पहला ही गुणस्थान होता है?
समाधान- 'पंचेन्द्रिय-तिर्यंच-अपर्याप्त-मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं' इसप्रकारको शंका होने पर द्रव्यप्रमाणानुगममें उत्तर दिया कि ' असंख्यात' है । इसतरह द्रव्यप्रमाणानुगममें लब्ध्यपर्याप्तक-पंचेन्द्रिय-तिर्यचोंके एक ही मिथ्यादृष्टि-गुणस्थानकी संख्याका प्रतिपादन करनेवाला आर्षवचन मिलता है । इससे पता चलता है कि लमध्यपर्याप्तकोंके एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है, और शेष चार प्रकारके तिर्यंचों में पांचों ही गुणस्थान होते हैं। यदि शेषके चार भेदोंमें पांच गुणस्थान न माने जाय, तो उन चार प्रकारके तिर्यंचों में पांच गुणस्थानोंकी संख्या आदिके प्रतिपादन करनेवाले द्रव्यानुयोग
१ जी. द. सू. २१.
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