Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, २७. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे गदिमग्गणापरूवणं
[ २१७
करेदि । तेहिंतो संखेज्ज - सहस्स- गुणे अणुभाग- कंडय घाटे करेदि ' एक्काणुभाग-कंडयउकीरण-कालादो एकं द्विदि-कंडय उकीरण कालो संखेज्ज-गुणो 'ति सुत्तादो । एवं काऊ अणिय-गुणट्ठाणं पविसिय तत्थ वि अणियट्टि - अद्धाए संखेज्जे भागे अपुव्वकरण- विहाणेण गमिय अणियहि अद्धाए संखेज्जदि-भागे से से थीणगिद्धि-तियं निरयगइतिरिक्खगइ - एइंदिय-बीइंदिय-ते इंदिय- चउरिंदियजादि - णिरय गइ - तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुच्चि आदावुज्जोव-यावर - सुहुम-साहारणा त्ति एदाओ सोलस पयडीओ खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतॄण पच्चक्खाणापच्चक्खाणावरण कोध-माण- माया-लोभे अक्कमेण खवेदि । एसो संत- कम्म- पाहुड उवएसो । कसाय - पाहुड उवएसो पुण अट्ठ- कसा सु खीस पच्छा तो मुहुतं गंतूण सोलस-कम्माणि खविज्जति त्ति । एदे दो वि उवसा सच्चमिदि के विभति, तण्ण घडदे, विरुद्धत्तादो सुत्तादो । दो वि पमाणाई ति वयणमणि घडदे, 'पमाणेण पमाणाविरोहिणा होदव्वं ' इदि णायादो | णाणा-जीवाणं
गुणे अनुभागकण्डौंका घात करता है, क्योंकि, एक अनुभागकाण्डकके उत्करिण-कालसे एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरण-काल संख्यातगुणा है, ऐसा सूत्र वचन है । इसप्रकार अपूर्वकरण गुणस्थानसंबन्धी क्रियाको करके और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट होकर, वहां पर भी अनिवृत्तिकरण कालके संख्यात भागों को अपूर्वकरण के समान स्थितिकाण्डक-घात आदि विधिसे बिताकर अनिवृत्तिकरणके कालमें संख्यातभाग शेष रहने पर स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, नरकगति, तिर्थचगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, नरकगतिप्रायेोग्यानुपूर्वी, तिर्गेचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन सोलह प्रकृतियों का क्षय करता है । फिर अन्तर्मुहूर्त व्यतीतकर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरणसम्बन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ इन आठ प्रकृतियोंका एकसाथ क्षय करता
। यह सत्कर्मप्राभृतका उपदेश है। किंतु कषायप्राभृतका उपदेश तो इसप्रकार है कि पहले आठ कायोंके क्षय होजाने पर पीछेसे एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्म प्रकृतियां क्षयको प्राप्त होती हैं । ये दोनों ही उपदेश सत्य हैं, ऐसा कितने ही आचार्योंका कहना है। किंतु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता है, क्योंकि, उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पड़ता है । तथा दोनों कथन प्रमाण हैं, यह वचन भी घटित नहीं होता है, क्योंकि, 'एक प्रमाणको दूसरे प्रमाणका विरोधी नहीं होना चाहिये' ऐसा न्याय है ।
१ णिरयतिरिक्खदु वियलं थीणतिगुज्जोव ताव एइंदी । साहरणसुहुमथावर सोलं मज्झं कसाय ॥ गो. क. ३३८. अणियट्टिबायरे थीण गिद्धिति निरयतिरियनामाओ । संखेज्जइमे सेसे तप्पा उग्गाओ खीअंति ॥ इत्तो हणइ कसायपि xx क. ग्रं. ७८, ७९.
२ तदो अट्टकायडिदिखंडयपुधत्तेण संकामिज्जति । जयध. अ. पृ. १०७८. तदो ट्ठिदिखंडयपुधत्तेण अपच्छिमे विदिखंडए उाणे एदेसि सोलसहं कम्माणं ट्ठिदिसंतकम्ममावलियम्भतरं सेसं । जयध. अ. पृ. १०७९. XX खवगा
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