Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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२१६ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १, २७.
भिण्ण-पयाड - हिंदि - अणुभाग-पदेसाणं जीवादो जो णिस्सेस-विणासो तं खवणं णाम । अणुबंध- कोध-माण- माया-लोभ-मिच्छत्त-सम्मामिच्छत सम्मत्तमिदि एदाओ सत्त पडीओ असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदो वा पमतसंजदो वा अप्पमत्त संजदो वा वेदि । किमक्कमेण किं कमेण खवेदि ? ण, पुत्रमणंताणुबंधि- चउकं तिणि वि करणाणि काऊण अणियट्टि करण-चरिम-समए अकमेण खवेदि । पच्छा पुणो वि तिण्णि करणाणि काऊण अधापवत्त - अपुव्वकरणाणि दो वि वोलाविय अणियट्टिकरणद्धाए संखेजे भागे गंतॄण मिच्छत्तं खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सम्मामिच्छत्तं खवेदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतून सम्मत्तं खवेदि । तदो अधापवत्तकरणं कमेण काऊ तो मुहुत्तेण अवकरणो होदि । सो ण एकं पि कम्मं क्खवेदि, किंतु समयं पडि असंखेज्ज-गुणसरूण पदेस - णिज्जरं करेदि । अंतोमुहुत्तेण एकेकं हिदि-कंडयं घादेतो अप्पणी कालब्भंतरे संवेज्ज - सहस्साणि द्विदि-कंडयाणि वादेदि । तत्तियाणि चेव हिदि-बंधोसरणाणि वि
विनाश हो जाता है उसे क्षपण (क्षय) कहते हैं । अनन्तानुबन्धी- क्रोध, मान, माया और लोभ, तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्प्रकृति, इन सात प्रकृतियोंका असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत अथवा अप्रमत्तसंयत जीव नाश करता है ।
शंका- इन सात प्रकृतियोंका क्या युगपत् नाश करता है या क्रमसे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, तीन करण करके अनिवृत्तिकरण के चरम समय में पहले अनन्तानुबन्धी चारका एक साथ क्षय करता है । तत्पश्चात् फिरसे तीन करण करके, उनमें से अधःकरण और अपूर्वकरण इन दोनों को उल्लंघन करके अनिवृत्तिकरणके संख्यातभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्वका क्षय करता है । इसके अनन्तर अन्तर्मुहूर्त व्यतीतकर सम्यग्मिध्यात्वका क्षय करता है । तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त व्यतीतकर सम्यक्प्रकृतिका क्षय करता है ।
इसतरह क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सातिशय अप्रमत्त गुणस्थानको प्राप्त होकर जिस समय क्षपणविधिका प्रारम्भ करता है, उससमय अधःप्रवृत्तकरणको करके क्रमसे अन्तर्मुहूर्तमें अपूर्वकरण गुणस्थानवाला होता है । वह एक भी कर्मका क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समय में असंख्यातगुणितरूपसे कर्म-प्रदेशोंकी निर्जरा करता है । एक एक अन्तर्मुहूर्तमें एक एक स्थितिकाण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर संख्यात- हजार स्थितिकाण्डकोका घात करता है । और उतने ही स्थितिबन्धापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात- हजार
१ क्षय आत्यन्तिकी निवृत्तिः । यथा तस्मिन्नेत्राम्भसि शुचिभाजनान्तरसंक्रान्ते पङ्कस्यात्यन्ताभावः । स. सि. २. १. त. रा. वा. २. १. २. त. लो. वा. २. १. ३.
२ पटकसायचउक्कं इत्तो मिच्छत्तमससम्मत्तं । अविरयसम्मे देसे पमत्ति अपमत्ति खीअति । क. ग्रं. ६.७८. ३ अयदचउक्कं तु अणं अणियट्टिकरणचरिमम्हि । जुगवं संजोगित्ता पुणो वि अणियट्टिकरणबहुभागं ॥ वोलिय कमसो मिच्छं मिस्सं सम्मं खवेदि कमे । गो. क. ३६५, ३६६.
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