Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १४.] संत-पख्वणाणुयोगदारे गुणहाणवण्णणं
[१७७ संज्वलनोदयाच्च प्रत्याख्यानसमुत्पत्तेः । संज्वलनोदयात्संयमो' भवतीत्यौदयिक व्यपदेशोऽस्य किं न स्यादिति चेन्न, ततः संयमस्योत्पत्तेरभावात् । क तद् व्याप्रियत इति चेत्प्रत्याख्यानावरणसर्वघातिस्पर्द्धकोदयक्षयसमुत्पन्नसंयममलोत्पादने तस्य व्यापारः । संयमनिबन्धनसम्यक्त्वापेक्षया क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकगुणनिबन्धनः। सम्यक्त्वमन्तरेणापि संयमोपलम्भनार्थः सम्यक्त्वानुवर्तनेनेति चेन्न, आप्तागमपदार्थेष्वनुत्पन्नश्रद्धस्य त्रिमूढालीढचेतसः संयमानुपपत्तेः । द्रव्यसंयमस्य नात्रोपादानमिति तोऽवगम्यत इति चेत्सम्यक् ज्ञात्वा श्रद्धाय यतः संयत इति व्युत्पत्तितस्तदवगतेः । उक्तं च
क्षायोपशमिक है।
शंका-संज्वलन कषायके उदयसे संयम होता है, इसलिये उसे औदयिक नामसे क्यों नहीं कहा जाता है ?
__समाधान- नहीं, क्योंकि, संज्वलन कषायके उदयसे संयमकी उत्पत्ति नहीं होती है।
शंका-तो संज्वलनका व्यापार कहां पर होता है ?
समाधान--प्रत्याख्यानावरण कषायके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदयाभावी क्षयसे (और सदवस्थारूप उपशमसे) उत्पन्न हुए संयममें मलके उत्पन्न करनेमें संज्वलनका व्यापार होता है।
संयमके कारणभूत सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो यह गुणस्थान क्षायिक, क्षायोपशमिक . और औपशमिक भावनिमित्तक है ।
शंका-यहां पर सम्यग्दर्शनपद की जो अनुवृत्ति बतलाई है उससे क्या यह तात्पर्य निकलता है कि सम्यग्दर्शनके बिना भी संयमकी उपलब्धि होती है ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंक आप्त, आगम और पदार्थोंमें जिस जीवके श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई, तथा जिसका चित्त तीन मूढ़ताओंसे व्याप्त है, उसके संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है।
शंका- यहां पर द्रव्यसंयमका ग्रहण नहीं किया है, यह कैसे जाना जाय ?
समाधान-क्योंकि,भलेप्रकार जानकर और श्रद्धान कर जो यमसहित है उसे संयत कहते हैं । संयत शब्दकी इसप्रकार व्युत्पत्ति करनेसे यह जाना जाता है कि यहां पर द्रव्यसंयमका ग्रहण नहीं किया है । कहा भी है
१ विवक्खिदस्स संजमस्स खओवसमित्तपडप्पायणमेत्तफलत्तादो कथं संजलणणोकसायाणं चारित्तविरोहीणं चारित्तकारयत्तं ? देसघादित्तेण सपडिवक्खगुणविणिम्मूलणसत्तिविरहियाणमुदयो विजमाणो वि ण स कन्जकारओ त्ति संजमहेदुत्तेण विवक्खियत्तादो, वत्थुदो दु का पडुप्पाएदि मलजणणपमादो वि य । गो.जी., जी. प्र., टी. ३२.
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