________________
१९०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, २१. वीतरागाः । छद्मनि आवरणे तिष्ठन्तीति छद्मस्थाः। क्षीणकषायवीतरागाश्च ते छद्मस्थाश्च क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थाः । छमस्थग्रहणमन्तदीपकत्वादतीताशेषगुणानां सावरणत्वस्य सूचकमित्यवगन्तव्यम् । क्षीणकषाया हि वीतरागा एव व्यभिचाराभावाद्वीतरागग्रहणमनर्थकमिति चेन्न, नामादिक्षीणकषायविनिवृत्तिफलत्वात् । पश्चतु गुणेषु कस्मादस्य प्रादुर्भाव इति चेद् द्रव्यभाववैविध्यादुभयात्मकमोहनीयस्य निरन्त्रयविनाशात्मायिकगुणनिवन्धनः । उक्तं च
हिस्सेस-खीण-मोहो फलियामल भायणुदय-समचित्तो ।
खीण-कसायो भण्णइ णिग्गंथों' वीयराएहि ॥ १२३ ॥ स्नातकगुणप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्तमाह
सजोगकेवली ॥ २१॥ वीतराग होते हैं उन्हें क्षीणकषायवीतराग कहते हैं। जो छद्म अर्थात् शानावरण और दर्शनायरणमें रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो क्षीणकषाय वीतराग होते हुए छद्मस्थ होते हैं उन्हें क्षीण-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ कहते हैं। इस सूत्रमें आया हुआ छद्मस्थ पद अन्तदीपक है, इसलिये उसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानोंके सावरणपनेका सूचक समझना चाहिये।
शंका-क्षीणकषाय जीव वीतराग ही होते हैं, इसमें किसी प्रकारका भी व्यभिचार नहीं आता, इसलिये सूत्रमें वीतराग पदका ग्रहण करना निष्फल है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, नाम, स्थापना आदि रूप क्षीणकषायकी निवृत्ति करना यही इस सूत्रमें वीतराग पदके ग्रहण करनेका फल है। अर्थात् इस गुणस्थानमें नाम, स्थापना और द्रव्यरूप क्षीणकषायका ग्रहण नहीं है, किंतु भावरूप क्षीणकषायोंका ही ग्रहण है, इस बातके प्रगट करनेके लिये सूत्रमें वीतराग पद दिया है।
शंका-पांच प्रकारके भावोंमसे किस भावसे इस गुणस्थानकी उत्पत्ति होती है ?
समाधान-मोहनीय कर्मके दो भेद हैं, द्रव्यमोहनीय और भावमोहनीय । इस गुणस्थानके पहले दोनों प्रकारके मोहनीय काँका निरन्वय (सर्वथा) नाश हो जाता है, अतएव इस गुणस्थानकी उत्पत्ति क्षायिक गुणसे है । कहा भी है
जिसने संपूर्ण अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धरूप मोहनीय कर्मको नष्ट कर दिया है, अतएव जिसका चित्त स्फटिकमणिके निर्मल भाजनमें रक्खे हुए जलके समान निर्मल है, ऐसे निर्ग्रन्थको वीतरागदेवने क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती कहा है ॥ १२३ ॥
अब स्नातकोंके गुणस्थानके प्रतिपादन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसामान्यसे सयोगकेवली जीव होते हैं ॥ २१ ॥
१ अनन्ति रचयन्ति संसारकारणं कर्मबन्धामिति ग्रन्थाःपरिग्रहाः मिथ्यात्ववेदादयः अन्तरंगाचतुर्दश, बहि. रंगाश्च क्षेत्रादयो दश, तेभ्यो निष्क्रान्तः सर्वात्मना निवृत्तो निर्गन्ध इति । गो. जी., म.प्र., टी. ६२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org