Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
भावेष्वन्योन्येषु च विरताः नरताः, तेषां गतिर्नरतगतिः । उक्तं चण रमंति जदो णिचं दव्वे खेत्ते य काळ-भावे य ।
अण्णोष्णेहि य जम्हा तम्हा ते णारया भणियारे ॥ १२८ ॥
सकलतिर्यक्पर्यायोत्पत्तिनिमित्ता तिर्यग्गतिः । अथवा तिर्यग्गतिकर्मोदयापादिततिर्यक्पर्यायकलापस्तिर्यग्गतिः । अथवा तिरो वक्रं कुटिलमित्यर्थः, तदञ्चन्ति व्रजन्तीति तिर्यञ्चः । तिरश्चां गतिः तिर्यग्गतिः । उक्तं च
तिरियंति कुडिल-भावं सुवियड - सण्णा णिगिट्टमण्णाणा । अच्चंत - पाव - बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम ॥ १२९ ॥
अशेषमनुष्यपर्यायनिष्पादिका मनुष्यगतिः । अथवा मनुष्यगतिकर्मोदयापादितमनुष्यपर्यायकलापः कार्ये कारणोपचारान्मनुष्यगतिः । अथवा मनसा निपुणाः मनसा
प्रीति नहीं रखते हैं उन्हें नरत कहते हैं, और उनकी गतिको नरतगति कहते हैं । कहा भी है
[ १, १, २४.
जिस कारणसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें जो स्वयं तथा परस्पर में कभी भी प्रीतिको प्राप्त नहीं होते, इसलिये उनको नारत कहते हैं ॥ १२८ ॥
समस्त जातिके तिर्यचों में उत्पत्तिका जो कारण है उसे तिर्यंचगति कहते हैं । अथवा, तिर्यग्गति कर्मके उदयसे प्राप्त हुए तिर्यच पर्यायोंके समूहको तिर्यग्गति कहते हैं । अथवा, तिरस्, वक्र और कुटिल ये एकार्थवाची नाम हैं, इसलिये यह अर्थ हुआ कि जो कुटिलभावको प्राप्त होते हैं उन्हें तिर्यच कहते हैं, और उनकी गतिको तिर्यंचगति कहते हैं । कहा भी है-जो मन, वचन और कायकी कुटिलताको प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएं सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पापकी बहुलता पाई जावे उनको तिर्यंच कहते हैं ॥ १२९ ॥
जो मनुष्यकी संपूर्ण पर्यायोंमें उत्पन्न कराती है उसे मनुष्यगति कहते हैं । अथवा, मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए मनुष्य पर्यायों के समूहको मनुष्यगति कहते हैं । यह लक्षण कार्य में कारणके उपचारसे किया गया है। अथवा, जो मनसे निपुण हैं, या मनसे
१ नरकगतिसम्बन्ध्यन्नपानादिद्रव्ये तद्भूतलरूपक्षेत्रे समयादिस्वायुरवसानकाले चित्पर्यायरूपभावे । गो. जी., जी. प्र., टी. १४७.
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२ अथवा निर्गतोऽयः पुण्यं एभ्यस्ते निरयाः तेषां गतिः निरयगतिः । गो. जी., जी. प्र., टी. १४७. ३ गो. जी. १४७.
४ गो. जी. १४८. यस्मात्कारणात् ये जीवाः सुविवृतसंज्ञा : अगूढाहारादिप्रकटसंज्ञायुताः, प्रभावसुखद्युतिश्या विशुद्धयादिभिरल्पीयस्त्वान्निकृष्टाः, हेयोपादेयज्ञानादिभिर्विहीनत्वादज्ञानाः, नित्यनिगोदविवक्षया अत्यन्तपापबहुलाः तस्मात् कारणाचे जीवाः तिरोभावं कुटिलभावं मायापरिणामं अचंति गच्छंति इति तिर्यंचो भणिता भवन्ति । जी. प्र. टी. ५ प्रतिषु ' कार्यकारण ' इति पाठः ।
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