Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९४ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १, २२.
अष्टविषये कचिद्विसंवादोपलम्भान्न तस्य सर्वत्र सर्वदा प्रामाण्यमिति चेन्न, तत्र वचनस्यापराधाभावात्तत्स्वरूपानवगन्तुः पुरुषस्य तत्रापराधेोपलम्भात् । न ह्यन्यदोषैरन्यः परिगृह्यते अव्यवस्थापत्तेः । वक्तरेव तत्रापराधो न वचनस्येति कथमवगम्यत इति चेन्न, तस्यान्यस्य वा तत एव प्रवृत्तस्य पादर्थप्राप्त्युपलम्भात् । अप्रतिपन्नविसंवादाविसंवादस्यास्य वचनस्य प्रामाण्यं कथमवसीयत इति चेन्नैष दोषः, आर्षावयवेन प्रतिपन्नाविसंवादेन सहार्षावयवस्यावयविद्वारेण । पन्नैकत्वतस्तत्सत्यत्वावगतेः । इक्षुदण्डवन्नानारस:
शंका - किसी परोक्ष-विषय में विसंवाद पाया जाता है, इसलिये सर्व देश और सर्व-काल में वचनमें प्रमाणता नहीं आ सकती है ?
समाधान - यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उसमें वचनका अपराध नहीं है, किंतु परोक्ष-विषयके स्वरूपको नहीं समझनेवाले पुरुषका ही उसमें अपराध पाया जाता है । कुछ दूसरेके दोषसे दूसरा तो पकड़ा नहीं जा सकता है, अन्यथा अव्यवस्था प्राप्त हो जायगी ।
शंका- परोक्ष विषय में जो विसंवाद उत्पन्न होता है, इसमें वक्ताका ही दोष है वचनका नहीं, यह कैसे जाना ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, उसी वचनसे पुनः अर्थके निर्णय में प्रवृत्ति करनेवाले उसी अथवा किसी दूसरे पुरुषके दूसरी बार अर्थकी प्राप्ति बराबर देखी जाती है । इससे ज्ञात होता है कि जहां पर तत्व-निर्णय में विसंवाद उत्पन्न होता है वहां पर वक्ताका ही दोष है, वचनका नहीं ।
शंका - जिस वचनकी विसंवादिता या अविसंवादिताका निर्णय नहीं हुआ उसकी प्रमाणताका निश्चय कैसे किया जाय ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिसकी अविसंवादिताका निश्चय हो गया है ऐसे आर्षके अवयवरूप वचनके साथ विवक्षित आर्षके अवयवरूप वचनके भी अवयव की अपेक्षा एकपना बन जाता है, इसलिये विवक्षित अवयवरूप वचनकी सत्यताका ज्ञान हो जाता है ।
विशेषार्थ - जितने भी आर्ष-वचन हैं वे सब आर्षके अवयव हैं, इसलिये आर्ष में प्रमाणता होनेसे उसके अवयवरूप सभी वचनोंमें प्रमाणता आ जाती है ।
शंका - जिसप्रकार गन्ना नाना रसवाला होता है, उसके ऊपर के भागमें भिन्न प्रकारका रस पाया जाता है, मध्यके भागमें भिन्न प्रकारका और नीचेके भागमें भिन्न प्रकारका रस पाया जाता है, उसीप्रकार अवयवरूप आर्ष-वचनको भी अनेक प्रकारका मान
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