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१, १, २२.] संत-परूवणाणुयोगदारे गुणटाणवण्णणं
[१९५ किन स्यादिति चेन्न, वाच्यवाचकभेदेन तस्य नानात्वाभ्युपगमात् । तद्वत्सत्यासत्यकृतभेदोऽपि तस्यास्त्विति चेन्न, अवयविद्वारेणैकस्य प्रवाहरूपेणापौरुषेयस्यागमस्यास त्यस्वविरोधात् । अथवा न तावदयं वेदः स्वस्यार्थं स्वयमाचष्टे सर्वेषामपि तदवगमप्रसङ्गात् । अस्तु चेन्न चैवं, तथानुपलम्भात् ।
अथान्ये व्याचक्षते, तेषां तदर्थविषयपरिज्ञानमस्ति वा नेति विकल्पद्वयावतारः ? न द्वितीयविकल्पस्तदर्थावगमरहितस्य व्याख्यातृत्वविरोधात् । अविरोधे वा सर्वः सर्वस्य व्याख्यातास्त्वज्ञत्वं प्रत्यविशेषात् । प्रथमविकल्पेऽसौ सर्वज्ञो वा स्यादसर्वज्ञो वा'? न द्वितीयविकल्पः, ज्ञानविज्ञानविरहादप्राप्तप्रामाण्यस्य व्याख्यातुर्वचनस्य प्रामाण्याभावात् । लेना चाहिये ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, वाच्य-वाचकके भेदसे उसमें नानापना माना ही गया है।
शंका - जिसप्रकार वाच्य-वाचकके भेदसे आर्ष-वचनोंमें भेद माना जाता है, उसीप्रकार वचनोंमें सत्य-असत्यकृत भी भेद मान लेना चाहिये ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अवयवीरूपसे प्रवाह-क्रमसे आये हुए अपौरुषेय एक आगममें असत्यपना स्वीकार करनेमें विरोध आता है।
अथवा, यह वेद (आगम) अपने वाच्यभूत अर्थको स्वयं नहीं कहता है । यदि वह स्वयं कहने लगे तो सभीको उसका ज्ञान हो जानेका प्रसंग आ जायगा, इसलिये भी वक्ताके दोषसे वचनमें दोष मानना चाहिये ।
शंका-यदि सभीको वेदका ज्ञान स्वयं हो जाय तो इसमें क्या हानि है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, इसप्रकारकी उपलब्धि नहीं होती है।
कोई लोग ऐसा व्याख्यान करते हैं कि वक्ताओंको वेदके वाच्यभूत विषयका परिशान है या नहीं? इसतरह दो विकल्प उत्पन्न होते हैं। इनमेंसे दूसरा विकल्प तो बन नहीं सकता है, क्योंकि जो वेदके अर्थ-ज्ञानसे रहित है, उसको वेदका व्याख्याता मानने में विरोध आता है। यदि कहो कि इसमें कोई विरोध नहीं है, तो सबको संपूर्ण शास्त्रोंका
ख्याता हो जाना चाहिये, क्योंकि, अज्ञपना सभीके बराबर है। यदि प्रथम विकल्प लेते हो कि वक्ताको वेदके अर्थका ज्ञान है, तो वह वक्ता सर्वश है कि असर्वज्ञ ? इनमेंसे दसरा विकल्प तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, ज्ञान-विज्ञानसे रहित होनेके कारण जिसने स्वयं प्रमाणताको प्राप्त नहीं किया ऐसे व्याख्याताके वचन प्रमाणरूप नहीं हो सकते हैं। .
१ अकृत्रिमाम्नायो न स्वयं स्वार्थ प्रकाशयितुमीशस्तदर्थविप्रतिपत्त्यभावानुषंगादिति तव्याख्यातानमन्तव्यः। सच यदि सर्वज्ञो वीतरागश्च स्यात्तदाम्नायस्य त परतंत्रतया प्रवृत्तेः किमकृत्रिमत्वकारणं पोथ्यते । तव्याख्यातरसर्वज्ञले रागित्वे वाश्रीयमाणे तन्मूलस्य सूत्रस्य नैव प्रमाणता युक्ता तस्य विप्रलंभनात् । त. श्लो. वा. पृ. ७.
२सपुरुषोऽसर्वज्ञो रागादिमांश्च यदि तदा तद्व्याख्यानादर्थनिश्वयानुपपत्तिरयथार्थाभिधानशंकनात । सर्वज्ञो वीतरागश्च न सोऽवेदानीमिष्टो यतस्तदनिश्चयः स्यादिति । त.लो. वा. पृ. ८.
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