Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, २२. भवतु तस्य तद्वचनस्य चाप्रामाण्यम्, नागमस्य पुरुषव्यापारनिरपेक्षत्वादिति चेन्न, व्याख्यातारमन्तरेण स्वार्थाप्रतिपादकस्य तस्य व्याख्यात्रधीनवाच्यवाचकभावस्य पुरुषव्यापारनिरपेक्षत्वविरोधात् । तस्मादागमः पुरुषेच्छातोऽर्थप्रतिपादक इति प्रतिपत्तव्यम् । तथा च 'वक्तृप्रामाण्याद्वचनप्रामाण्यम्' इति न्यायादप्रमाणपुरुषव्याख्यातार्थ आगमोऽप्रमाणतां कथं नास्कन्देत् ? तस्माद् विगताशेषदोषावरणत्वात् प्राप्ताशेषवस्तुविषयबोधस्तस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथास्यापौरुषेयत्वस्यापि पौरुषेयवदप्रामाण्यप्रसङ्गात् । असर्वज्ञानां व्याख्यातृत्वाभावे आर्षसन्ततेविच्छेदस्यार्थशून्याया वचनपद्धतेरापत्वाभावादिति चेन, इष्टत्वात् । नाप्यापसन्ततेविच्छेदो विगतदोषावरणाहव्याख्यातार्थस्यार्षस्य चतुरमलबुद्धयतिशयोपेतनिर्दोषगणभृदवधारितस्य ज्ञानविज्ञानसम्पन्नगुरुपर्वक्रमेणायातसाविनष्टप्राक्तनवाच्यवाचकभावस्य विगतदोषावरणनिष्प्रतिपक्षसत्यस्वभावपुरुषव्याख्यात
शंका-असर्वज्ञ वक्ता और उसके पचनको अप्रमाणता भले ही मान ली जाय, परंतु आगममें अप्रमाणता नहीं मानी जा सकती, क्योंकि, आगम पुरुषके व्यापारकी अपेक्षासे रहित है?
समाधान-महीं, क्योंकि, व्याख्याताके विना वेद स्वयं अपने विषयका प्रतिपादक नहीं है, इसलिये उसका वाच्य-वाचकभाव व्याख्याताके आधीन है। अतएव वेदमें पुरुष व्यापारकी निरपेक्षता नहीं बन सकती है । इसलिये आगम पुरुषकी इच्छासे अर्थका प्रतिपादक है, ऐसा समझना चाहिये। दूसरे 'वक्ताकी प्रमाणतासे वचनमें प्रमाणता आती है। इस न्यायके अनुसार अप्रमाणभूत पुरुषके द्वारा व्याख्यान किया गया आगम अप्रमाणताको कैसे प्राप्त नहीं होगा, अर्थात् अवश्य प्राप्त होगा? इसलिये जिसने, संपूर्ण भावकर्म और द्रव्यकर्मको दूर कर देनेसे संपूर्ण वस्तु-विषयक ज्ञानको प्राप्त कर लिया है, वहीं आगमका व्याख्याता हो सकता है, ऐसा समझना चाहिये । अन्यथा पौरुषेयत्व-रहित इस आगमको भी पौरुषेय आगमके समान अप्रमाणताका प्रसंग आ जायगा।
शंका--असर्वज्ञको व्याख्याता नहीं मानने पर भी आर्ष-परंपराके विच्छेदको या अर्थशून्य वचन-रचनाको आर्षपना प्राप्त नहीं हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, वैसा तो हम मानते ही हैं । अर्थात् आर्ष-परंपराके विच्छेदको या अर्थशून्य वचन-रचनाको हमारे यहां आगमरूपसे प्रमाण नहीं माना है।
दूसरे हमारे यहां आर्ष-परंपराका विच्छेद भी नहीं है, क्योंकि, जिसका दोष और आवरणसे रहित अरहंत परमेष्ठीने अर्थरूपसे ब्याख्यान किया है, जिसको चार निर्मल बुद्धिरूप अतिशयसे युक्त और निर्दोष गणधरदेवने धारण किया है, जो ज्ञान-विज्ञान संपन्न गुरुपरंपरासे चला आ रहा है, जिसका पहलेका वाच्य-वाचकभाव अभीतक नष्ट नहीं हुआ है और जो दोषावरणसे रहित तथा निष्प्रतिपक्ष सत्य स्वभाववाले पुरुषके द्वारा व्याख्यात होनेसे श्रद्धाके
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