Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, २२] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे गुणहाणवण्णणे
[ १९३ प्रतिपादनफलत्वात् । कथं वचनात्तदस्तित्वमवगम्यत इति चेच्चक्षुषा स्तम्भादेरस्तित्वं कथमवगम्यते ? तत्प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेश्चक्षुषा समुपलब्धमस्तीति चेत्तत्रापि वचनस्य प्रामाण्यान्यथानुपपत्तेः समस्ति वचने वाच्यमिति समानमेतत् । वचनस्य प्रामाण्यमसिद्धं तस्य क्वचिद् विसंवाददर्शनादिति चेन्न, चक्षुषोऽपि प्रामाण्यमसिद्धं तस्य क्वचिद्विसंवाददर्शनत्वं प्रति ततोऽविशेषात् । यदविसंवादि चक्षुस्तत्प्रमाणमिति चेन्न, सर्वेषामपि चक्षुषां सर्वत्र सर्वदा अविसंवादस्यानुपलम्भात् । यत्र यदाविसंवादः समुपलभ्यते चक्षुषस्तत्र तदा तस्य प्रामाण्यमिति चेद्यदि कचित्कदाचिदविसंवादिनश्चक्षुषोऽपि प्रामाण्यमिष्यते दृष्टादृष्टविषये सर्वत्र सर्वदाविसंवादिनो वचनस्य प्रामाण्यं किमिति नेष्यते ?
इस सूत्रमें फिरसे केवली पदका ग्रहण किया।
शंका- इस सूत्रमें केवली इस वचनके ग्रहण करनेमात्रसे अयोगी-जिनके केवलझानका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ?
समाधान- यदि यह पूछते हो तो हम भी पूछते हैं कि चक्षुसे स्तभ आदिके अस्तित्वका ज्ञान कैसे होता है ? यदि कहा जाय, कि चक्षु-शानमें अन्यथा प्रमाणता नहीं आ सकती, इसलिये चक्षुद्वारा गृहीत स्तम्भादिकका अस्तित्व है, ऐसा मान लेते हैं। तो हम भी कह सकते हैं, कि अन्यथा वचनमें प्रमाणता नहीं आ सकती है, इसलिये वचनके रहने पर उसका वाच्य भी विद्यमान है, ऐसा भी क्यों नहीं मान लेते हो, क्योंकि, दोनों बातें समान हैं।
शंका-वचनकी प्रमाणता असिद्ध है, क्योंकि, कहीं पर वचनमें विसंवाद देखा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, इस पर तो हम भी ऐसा कह सकते हैं, कि चक्षुकी प्रमाणता असिद्ध है, क्योंकि, वचनके समान चक्षुमें भी कहीं पर विसंवाद प्रतीत होता है।
शंका-जो चक्षु अविसंवादी होता है उसे ही हम प्रमाण मानते हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि, किसी भी चक्षुका सर्व देश और सर्व-कालमें अविसंवादीपना नहीं पाया जाता है।
शंका-जिस देश और जिस कालमें चक्षुके अविसंवाद उपलब्ध होता है, उस देश और उस कालमें उस चक्षुमें प्रमाणता रहती है ?
समाधान-यदि किसी देश और किसी कालमें अविसंवादी चक्षुके प्रमाणता मानते हो तो प्रत्यक्ष और परोक्ष विषयमें सर्व-देश और सर्व-कालमें अविसंवादी ऐसे विवक्षित वचनको प्रमाण क्यों नहीं मानते हो।
१ तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः अ. श. ७५.
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