Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१९२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, २२. असहाय-णाण-दसण-सहिओ इदि केवली हु जोएण ।
जुत्तो ति सजोगो इदि अणाइ-णिहणारिसे उत्तो ॥ १२५ ॥ साम्प्रतमन्त्यस्य गुणस्य स्वरूपनिरूपणार्थमहन्मुखोद्गतार्थ गणधरदेवग्रथितशब्दसन्दर्भ प्रवाहरूपतयानिधनतामापन्नमशेषदोषव्यतिरिक्तत्वादकलङ्कमुत्तरसूत्रं पुष्पदन्तभट्टारकः प्राह
अजोगकेवली ॥ २२॥
न विद्यते योगो यस्य स भवत्ययोगः । केवलमस्यास्तीति केवली । अयोगश्चासौ केवली च अयोगकेवली । केवलीत्यनुवर्तमाने पुनः केवलिग्रहणं न कर्तव्यमिति चेन्नैप दोपः, समनस्केषु ज्ञानं सर्वत्र सर्वदा मनोनिबन्धनत्वेन प्रतिपन्नं प्रतीयते च । सति चैवं नायोगिनां केवलज्ञानमस्ति तत्र मनसोऽसत्वादिति विप्रतिपन्नस्यशिष्यस्य तदस्तित्व
हो गया है, और जिसने नव केवल-लब्धियोंके प्रगट होनेसे ‘परमात्मा' इस संज्ञाको प्राप्त कर लिया है, वह इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा न रखनेवाले ऐसे असहाय ज्ञान और दर्शनसे युक्त होनेके कारण केवली, तीनों योगेसे युक्त होनेके कारण सयोगी और घाति-काँसे रहित होनेके कारण जिन कहा जाता है, ऐसा अनादिनिधन आर्षमें कहा है । ॥ १२४, १२५ ॥
अब पुष्पदन्त भट्टारक अन्तिम गुणस्थानके स्वरूपके निरूपण करनेके लिये, अर्थरूपसे अरहंत-परमेष्ठीके मुखसे निकले हुए, गणधरदेवके द्वारा गूंथे गये शब्द-रचनावाले, प्रवाहरूपसे कभी भी नाशको नहीं प्राप्त होनेवाले और संपूर्ण दोषोंसे रहित होनेके कारण निर्दोष, ऐसे आगेके सूत्रको कहते हैं. सामान्यसे अयोगकेवली जवि होते हैं ॥२२॥
जिसके योग विद्यमान नहीं है उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलशान पाया जाता है उसे केवली कहते हैं। जो योग रहित होते हुए केवली होता है उसे अयोगकेवली कहते हैं।
शंका-पूर्वसूत्रसे केवली पदकी अनुवृत्ति होने पर इस सूत्रमें फिरसे केवली पदका ग्रहण नहीं करना चाहिये ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंोंक, समनस्क जीवोंके सर्व-देश और सर्व कालमें मनके निमित्तसे उत्पन्न होता हुआ ज्ञान प्रतीत होता है, इसप्रकारके नियमके मान लेने पर, अयोगियोंके केवलज्ञान नहीं होता है, क्योंकि, वहां पर मन नहीं पाया जाता है । इसप्रकार विवादग्रस्त शिष्यको अयोगियों में केवलज्ञानके अस्तित्वके प्रतिपादनके लिये
१ गो. जी. ६४.
२ योगः अस्यास्तीति योगी, न योगी अयोगी, अयोगी केवलिजिनः इत्यनुवर्तनात् अयोगी चासो केवलिजिनश्च अयोगिकेवलिजिनः । गो. जी., जी. प्र., टी १..
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