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१८८] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, १९. काश्चित्क्षपयति क्षपयिष्यति क्षपिताश्चेति क्षायिकगुणः। काश्चिदुपशमयति उपशमयिष्यति उपशमिताश्चेत्यौपशमिकगुणः । सम्यग्दर्शनापेक्षया क्षपकः क्षायिकगुणः, उपशमकः औपशमिकगुणः क्षायिकगुणो वा द्वाभ्यामपि सम्यक्त्वाभ्यामुपशमश्रेण्यारोहणसम्भवात् । संयतग्रहणस्य पूर्ववत्साफल्यमुपदेशष्टव्यम् । उक्तं च -
पुवापुच्चय-फद्दय-अणुभागादो अणंत-गुण-हीणे।
लोहाणुम्हि ट्ठियओ हंद सुहुम-सांपराओ सो ॥ १२१ ॥ साम्प्रतमुपशमश्रेण्यन्तगुणप्रतिपादनार्थमुत्तरसूत्रमाहउवसंत-कसायवीयराय-छदुमत्था ॥ १९ ॥
उपशान्तः कषायो येषां त उपशान्तकषायाः। वीतो विनष्टो रागो येषां ते वीतरागाः । छद्म ज्ञानहगावरणे, तत्र तिष्ठन्तीति छमस्थाः । वीतरागाश्च ते छमस्थाश्च वीतरागछद्मस्थाः । एतेन सरागछ स्थनिराकृतिरवगन्तव्या । उपशान्तकपायाश्च ते वीत
इस गुणस्थानमें जीव कितनी ही प्रकृतियोंका क्षय करता है, आगे क्षय करेगा और पूर्वमें क्षय कर चुका, इसलिये इसमें क्षायिकभाव है । तथा कितनी ही प्रकृतियोंका उपशम करता है, आगे उपशम करेगा और पहले उपशम कर चुका, इसलिये इसमें औपशमिक भाव है। सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा क्षपक श्रेणीवाला क्षायिकभावसहित है। और उपशमश्रेणीवाला औपशमिक तथा क्षायिक इन दोनों भावोंसे युक्त है, क्योंकि, दोनों ही सम्यक्त्वोंसे उपशमश्रेणीका चढ़ना संभव है । इस सूत्रमें ग्रहण किये गये संयत पदकी पूर्ववत् अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें बतलाई गई संयत पदकी सफलताके समान सफलता समझ लेना चाहिये । कहा भी है
पूर्वस्पर्द्धक और अपूर्वस्पर्द्धकके अनुभागसे अनन्तगुणे हीन अनुभागवाले सूक्ष्म लोभमें जो स्थित है उसे सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवी जीव समझना चाहिये ॥ १२१ ॥
अब उपशमश्रेणीके अन्तिम गुणस्थानके प्रतिपादनार्थ आगेका सूत्र कहते हैंसामान्यसे उपशान्त-कषाय-वीतराग-छद्मस्थ जीव होते हैं ॥ १९ ॥
जिनकी कषाय उपशान्त हो गई है उन्हें उपशान्तकषाय कहते हैं। जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हें वीतराग कहते हैं। छद्म ज्ञानावरण और दर्शनावरणको कहते हैं, उनमें जो रहते हैं उन्हें छद्मस्थ कहते हैं। जो वीतराग होते हुए भी छमस्थ होते हैं उन्हें वीतरागछद्मस्थ कहते हैं। इसमें आये हुए वीतराग विशेषगसे दशम गुणस्थान तकके सरागछद्मस्थाका निराकरण समझना चाहिये । जो उपशान्तकषाय होते हुए भी वीतरागछमस्थ होते हैं उन्हें
१ सूक्ष्मसाम्पराये सूक्ष्मसंज्वलनलोभः गो. क., जी. प्र., टी. ३३९. २ पुवापुव्वप्फड़यबादरसहुमगयकिट्टिअणुभागा। हीणकमाणतगुणेणवरादु वरं च हेढस्स ॥ गो. जी. ५९.
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