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१, १, १७.] संत-पख्वणाणुयोगदारे गुणहाणवण्णणं
[ १८३ नयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलम्भात् । उक्तं च
भिण्ण-समय-ट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सयदा सरिसो । करणेहि एक-समय-ट्ठिएहि सरिसो विसरिसो य' ॥ ११६ ।। एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिस-समय-ट्ठिएहि जीवेहि ।। पुयमपत्ता जम्हा होति अपुवा हु परिणामां ॥ ११७ ॥ तारिस-परिणाम-ट्ठिय जीवा हु जिणेहि गलिय-तिमिरेहि ।
मोहस्स पुत्रकरणा खवणुवसमणुज्जया भणियाँ ॥ ११८ ॥ इदानीं बादरकषायेषु चरमगुणस्थानप्रतिपादनार्थमाह -
अणियट्टि-बादर-सांपराइय-पविट्ठ-सद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा ॥ १७ ॥
समानसमयावस्थितजीवपरिणामानां निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्तिः । अथवा निवृत्ति
नहीं किया है, यह उपशमश्रेणीपर नहीं चढ़ सकता है। कहा भी है
अपूर्वकरण गुणस्थानमें भिन्न-समयवर्ती जीवोंके परिणामोंकी अपेक्षा कभी भी सहशता नहीं पाई जाती है, किंतु एक-समयवर्ती जीवोंके परिणामोंकी अपेक्षा सदृशता और विसदृशता दोनों ही पाई जाती हैं ॥ ११६॥
इस गुणस्थानमें विसदृश अर्थात् भिन्न-भिन्न समयमें रहनेवाले जीव, जो पूर्वमें कभी भी नहीं प्राप्त हुए थे ऐसे अपूर्व परिणामोंको ही धारण करते हैं, (इसलिये इस गुणस्थानका नाम अपूर्वकरण है।)॥ ११७ ॥
पूर्वोक्त अपूर्व परिणामको धारण करनेवाले जीव मोहनीय कर्मकी शेष प्रकृतियोंके क्षपण अथवा उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञानरूपी अन्धकारसे सर्वथा रहित जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥ ११८ ॥
अब बादर-कषायवाले गुणस्थानों में अन्तिम गुणस्थानके प्रतिपादन करनेके लिये सूत्र कहते हैं
अनिवृत्ति-बादर-सांपरायिक-प्रविष्ट-शुद्धि संयतोंमें उपशमक भी होते हैं और क्षपक भी होते हैं ॥ १७ ॥
समान-समयवर्ती जीवोंके परिणामोंकी भेदरहित वृत्तिको निवृत्ति कहते हैं। अथवा
१ गो. जी. ५२. २ गो. जी. ५१. ३ गो. जी. ५४. ४ निवृत्तिावृत्तिः परिणामानां विसदृशभावेन परिणतिरित्यनर्थान्तरम् । जयध. अ. पृ. १०७४.
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