Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, १४. ] संत-पख्वणाणुयोगद्दारे गुणट्ठाणवण्णणं
[१७५ वरणीयस्य सर्वघातिस्पर्द्धकानामुदयक्षयात् सतां चोपशमात् प्रत्याख्यानावरणीयोदयादप्रत्याख्यानोत्पत्तेः । संयमासंयमधाराधिकृतसम्यक्त्वानि कियन्तीति चेत्क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकानि त्रीण्यपि भवन्ति पर्यायेण नान्यन्तरेणाप्रत्याख्यानस्योत्पत्तिविरोधात् । सम्यक्त्वमन्तरेणापि देशयत यो दृश्यन्त इति चेन, निर्गतमुक्तिकासस्यानिवृत्तविषयपिपासस्याप्रत्याख्यानानुपपत्तेः । उक्तं च
जो तस-वहाउ विरओ अविरओ तह य थावर-वहाओ ।
एक-समयम्हि जीवो विरयाविरओ जिणेकमई ।। ११२॥ संयतानामादिगुणस्थाननिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाहपमत्तसंजदा ॥ १४ ॥
प्रकर्षेण मत्ताः प्रमताः, सं सम्यग् यताः विरताः संयताः । प्रमत्ताश्च ते संयताथ कषायके वर्तमान कालिक सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदयाभावी क्षय होनेसे, और आगामी कालमै उद्यमें आने योग्य उन्हींके सवस्थारूप उपशम होनेसे तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषायके उदयसे संयमासंयमरूप अप्रत्याख्यान-चारित्र उत्पन्न होता है।
शंका-संयमासंयमरूप देशचारित्रकी धारासे संबन्ध रखनेवाले कितने सम्यग्दर्शन होते हैं?
समाधान - क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक ये तीनों से कोई एक सम्यग्दर्शन विकल्पसे होता है, क्योंकि, उनमेंसे किसी एकके विना अप्रत्याख्यान चारित्रका प्रादुर्भाव ही नहीं हो सकता है।
शंका-सम्यग्दर्शनके विना भी देशसंयमी देखने में आते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जो जीव मोक्षकी आकांक्षासे रहित हैं और जिनकी विषय-पिपासा दूर नहीं हुई है, उनके अप्रत्याख्यानसंयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है। कहा भी है
जो जीव जिनेन्द्रदेवमें अद्वितीय श्रद्धाको रखता हुआ एक ही समयमें त्रसजीवोंकी हिंसासे विरत और स्थावर जीवोंकी हिंसासे अविरत होता है, उसको विरताविरत कहते हैं ॥ ११२॥
अब संयतोंके प्रथम गुणस्थानके निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसामान्यसे प्रमत्तसंयत जीव होते हैं ॥ १४ ॥
प्रकर्षसे मत्त जीवोंको प्रमत्त कहते हैं, और अच्छी तरहसे विरत या संयमको प्राप्त जीवोंको संयत कहते हैं ।जो प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं। १ गो. जी. ३१. ' च ' शब्देन प्रयोजनं विना स्थावरवधमपि न करोतीति व्याख्ययो भवति ।
जी. प्र.टी.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org