Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ७. ]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणहाणवण्णणं
[ १५५
रितिश्रुतवतः शिष्यस्य तनिर्देशविषयसंशयः समुत्पद्यत इति जातनिश्चयः पृच्छा सूत्रमाह
तं जहा ॥ ६ ॥
अव्यक्तत्वात्तदिति नपुंसकलिङ्गनिर्देश: । 'तद्' अष्टानामनुयोगद्वाराणां निर्देशः । यथेति पृच्छा । एवं पृष्ठवतः शिष्यस्य संदेहापोहनार्थमुत्तरसूत्रमाह-
संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालानुगमो अंतराणुगमो भावानुगमो अप्पा बहुगाणुगमो चेदि ॥७॥
अणमणियोगद्दारा माइम्मि किमिदि संतपरूवणा चेय उच्चदे ? ण, संताणियोगो से साणियोगद्दाराणं जेण जोणीभूदो तेण पढमं संताणियोगो चेव भण्णदे' ।
समास का ज्ञान नहीं हो सकता है। ऐसा सुननेवाले शिष्यको उन आठ अनुयोगद्वारोंके नामके विषयमें संशय उत्पन्न हो सकता है । इसप्रकारका निश्चय होने पर आचार्य पृच्छासूत्रको कहते हैं
आठ अधिकार कौनसे है ॥ ६ ॥
कहा जानेवाला विषय अव्यक्त होने से ' सामान्ये नपुंसकम् ' इस नियमको ध्यान में रखकर आचार्यने 'तद् ' यह नपुसंकलिंग निर्देश किया है, जो कि आगे कहे जानेवाले उन आठही अनुयोगद्वारोंका निर्देश करता है । ' यथा ' यह पद पृच्छाको प्रगट करता है । अर्थात् वे आठ अनुयोगद्वार कौनसे हैं ? इसप्रकार पूछनेवाले शिष्य के संदेहको दूर करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ये आठ अनुयोगद्वार होते हैं ॥ ७ ॥
शंका - आठ अनुयोगद्वारोंके आदिमें सत्प्ररूपणा ही क्यों कही गई है ?
समाधान - ऐसा नहीं कहना, क्योंकि, सत्प्ररूपणारूप अनुयोगद्वार जिस कारणसे शेष अनुयोगद्वारोंका योनिभूत ( मूलकारण ) है, उसीकारण सबसे पहले सत्प्ररूपणाका ही निरूपण किया है ।
१ सत्वं व्यभिचारि सर्वपदार्थाविषयत्वात् न हि कश्चित् पदार्थः सच व्यभिचरति XX सर्वेषां च विचाराहणामस्तित्वं मूलं तेन हि निश्चितस्य वस्तुन उत्तरा चिंता युज्यते अतस्तस्यादौ वचनं क्रियते । सतः परिणामोपलब्धेः संख्योपदेशः । निर्ज्ञातसंख्यस्य निवासविप्रतिपत्तेः क्षेत्राभिधानम् । अवस्थाविशेषस्य वैचित्र्यात्रिकालविषयोपश्लेषनिश्चयार्थं स्पर्शनम् । स्थितिमतोऽवधिपरिच्छेदार्थ कालोपादानम् । अनुपहतवीर्यस्य न्यग्भावे पुनरुद्भूतिदर्शनात्तद्वचनम् ( अंतरवचनम् ) | परिणामप्रकार निर्णयार्थ भाववचनम् । संख्याताद्यन्यतमनिश्रयेऽप्यन्योन्यविशेषप्रतिपत्त्यर्थमल्पबहुत्ववचनम् । त. रा. वा. पृ. ३०.
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