Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १२.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणटाणवण्णणं
[ १७१ समीची दृष्टिः श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टिः, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयंतसम्यग्दृष्टिः । सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्टी उवसमसम्माइट्ठी चेदि । दसण-चरण-गुण-घाइ चत्तारि अणंताणुबंधि-पयडीओ, मिच्छत-सम्मत्तसम्मामिच्छत्तमिदि तिण्णि दसणमोह-पयडीओ च एदासिं सत्तण्हं गिरवसेस-क्खएण खइयसम्माइट्ठी उच्चइ । एदासिं सत्तण्हं पयडीणमुवसमेण उवसमसम्माइट्ठी होइ । सम्मत-तण्णिद-दसणमोहणीय-भेय-कम्मस्प्त उदएण वेदयसम्माइट्ठी णाम । तत्थ खइयसम्माइट्ठी ण कयाइ वि मिच्छतं गच्छइ, ण कुणइ संदेहं पि, मिच्छ तुब्भव दट्टण णो विम्हयं जायदि । एरिसो चेय उवसमसम्माइट्ठी', किंतु परिणाम-पच्चएण मिच्छत्तं गच्छइ, सासणगुणं पि पडिबजइ, सम्मामिच्छत्तगुणं पि ढुक्कइ, वेदगसम्मत्तं पि समिल्लियइ । जो पुण वेदयसम्माइट्ठी सो सिथिल-सदहणो थेरस्स लट्ठि-ग्गहणं व सिथिलग्गाहो
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जिसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा समीचीन होती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयमरहित सम्यग्दृष्टिको असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकारके हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिकसम्यग्दृष्टि । सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र गुणका घात करनेवाली चार अनन्तानुबन्धी प्रकृतियां, और मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्प्रकृतिमिथ्यात्व ये तीन दर्शनमोहनीयंकी प्रकृतियां, इसप्रकार इन सात प्रकृतियोंके सर्वथा विनाशसे जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि कहा जाता है। तथा पूर्वोक्त सात प्रकृतियोंके उपशमसे जीव उपशमसम्यग्दृष्टि होता है । तथा जिसकी सम्यक्त्व संशा है ऐसी दर्शनमोहनीय कर्मकी भेदरूप प्रकृतिके उदयसे यह जीव वेदकसम्यग्दृष्टि कहलाता है। उनमें शायिकसम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता है, किसी प्रकारके संदेहको भी नहीं करता है और मिथ्यात्वजन्य अतिशः योको देखकर विस्मयको भी प्राप्त नहीं होता है। उपशम सम्यग्दृष्टि जीव भी इसीप्रकारका होता है, किंतु परिणामोंके निमित्तसे उपशम सम्यक्त्वको छोड़कर मिथ्यात्वको जाता है, कभी सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त करता है, कभी सम्पमिथ्यात्व गुणस्थानको भी पहुंच जाता है और कभी वेदकसम्यक्त्वसे मेल कर लेता है। तथा जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव है वह शिथिल श्रद्धानी होता है, इसलिये वृद्ध पुरुष जिसप्रकार अपने हाथमें लकड़ीको शिथिलतापूर्वक पकड़ता है, उसीप्रकार वह भी तत्वार्थके विषयमें शिथिलग्राही होता है,
सम्मोनिंदतो पात्रकम्मकरणं च । अहिंगयजीवाजीवो अवलियदिट्टी वलियमोहो। अमि. रा. को. (अविरयसम्मावि दि)
१ वयणेहिं त्रि हेदूहिं वि इंदियभयआणएहिं रूवेहिं । बीमच्छ जुगुच्छाहिं य तेलोकेण वि ण चालेजो ॥ गो. जी. ६४७.
२दसणमोहवसमदो उपजइ ज पयत्थसदहणं । उसमसम्मतमिणं पसण्णमलपंकतोयसमं । गो. जी. ६५०.
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