Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१७.] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, १२. अस्तु चेन्न, तथाप्रतिपादकस्यापस्याभावात् । अपि च यद्येवं क्षयोपशम इष्येत, मिथ्यात्वमपि क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरुदयप्राप्तस्पर्धकानां क्षयात्सतामुदयाभावलक्षणोपशमान्मिथ्यात्वकर्मणः सर्वघातिस्पर्धकोदयाच्च मिथ्यात्वगुणस्य प्रादुभीकोपलम्भादिति । उक्तं च
• दहि-गुडमिव वामिस्सं पुहभावं णेव कारिदुं सक्कं ।
___ एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णायव्वो ॥ १०९ ॥ सम्यग्दृष्टिगुणनिरूपणार्थमुत्तरसूत्रमाहअसंजदसम्माइट्ठी ॥ १२ ॥
शंका-तो तीसरे गुणस्थानमें औपशमिक भाव भी मान लिया जावे ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, तीसरे गुणस्थानमें औपशमिक भावका प्रतिपादन करनेवाला कोई आर्षवाक्य नहीं है । अर्थात् आगममें तीसरे गुणस्थानमें औपशमिक भाव नहीं बताया है।
दुसरे, यदि तीसरे गुणस्थानमें मिथ्यात्व आदि कमौके क्षयोपशमसे क्षयोपशम भाष की उत्पत्ति मान ली जावे तो मिथ्यात्व गुणस्थानको भी क्षायोपशमिक मानना पड़ेगा, क्योंकि, सादि मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थानमें भी सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मके उदय अवस्थाको प्राप्त हुए स्पर्द्धकोंका क्षय होनेसे, सत्तामें स्थित उन्हींका उदयाभाब लक्षण उपशम होनेसे तथा मिथ्यात्व कर्मके सर्वघाती स्पर्द्धकोंके उदय होनेसे मिथ्यात्व गुणस्थानकी उत्पत्ति पाई जाती है। इतने कथनसे यह तात्पर्य समझना चाहिये कि तीसरे गुणस्थानमें मिथ्यात्व सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धीके क्षयोयपशमसे क्षायोपशमिक भाव न होकर केवल मिश्र प्रकृतिके उदयसे मिश्रभाव होता है। कहा भी है
जिसप्रकार दही और गुड़को मिला देने पर उनको अलग अलग नहीं किया जा सकता है, किंतु मिले हुए उन दोनोंका रस मिश्रभावको प्राप्त हो जाता है, उसप्रकार एक ही कालमें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणामों को मिश्र गुणस्थान कहते हैं, ऐसा समझना चाहिये ॥ १०९॥
अब सम्यग्दृष्टि गुणस्थानके निरूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैंसामान्यसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं ॥ १२॥
१ गो. जी. २२. यथा नालिकेरद्वीपवासिनः क्षुधादितस्यापीहागतस्यौदनादिकेऽनेकविधे टोकिते तस्योपरि न रुचिः नापि निन्दा, यतस्तेन स ओदनादिक आहारो न कदाचित् दृष्टो नापि श्रुतः, एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टेरपि जीवादिपदार्थानामुपरि न च रुचिर्नापि निन्दति । नं. सू. पृ. १०६.
२बंध अविरइहेउं जाणंतो रागदोसदुक्ख च । विरइसुहं इच्छंतो विरई काउंच असमत्थो॥ एस असंजय
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