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संत-परूवणानुयोगद्दारे गुणहाणवण्णणं
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न व्यपदिश्यते चेन्न, अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपादनफलत्वात् । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयात्क्षयोपशमाद्वा सासादन परिणामः प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्येत । यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनन्तानुबन्धिनो, न तद्दर्शनमोहनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात् । तस्योभयप्रतिबन्धकत्वादुभयव्यपदेशो न्याय्य इति चेन्न, इष्टत्वात् । सूत्रे तथाऽनुपदेशोऽप्यर्पितनयापेक्षः । विवक्षितदर्शनमोहोदयोपशमक्षयक्षयोपशममन्तरेणोत्पन्नत्वात्पारिणामिकः सासादनगुणः ।
शंका - - ऊपर के कथनानुसार जब वह मिथ्यादृष्टि ही है तो फिर उसे मिध्यादृष्टि संज्ञा क्यों नहीं दी गई है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, सासादन गुणस्थानको स्वतन्त्र कहने से अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंकी द्विस्वभावताका कथन सिद्ध हो जाता है ।
विशेषार्थ - सासादन गुणस्थानको स्वतन्त्र माननेका फल जो अनन्तानुबन्धीकी द्विस्वभावता बतलाई गई है, वह द्विस्वभावता दो प्रकार से हो सकती है। एक तो अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनों की प्रतिबन्धक मानी गई है, और यही उसकी द्विस्वभावता है । इसी कथन की पुष्टि यहां पर सासादन गुणस्थानको स्वतन्त्र मानकर की गई है। दूसरे, अनन्तानुबन्धी जिसप्रकार सम्यक्त्वके विघातमें मिथ्यात्वप्रकृतिका काम करती है, उसप्रकार वह मिथ्यात्व के उत्पादमें मिथ्यात्वप्रकृतिका काम नहीं करती है । इस प्रकारकी द्विस्वभावताको सिद्ध करनेके लिये सासादन गुणस्थानको स्वतन्त्र माना है ।
दर्शन मोहनीयके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमसे जीवों के सासादनरूप परिणाम तो उत्पन्न होता नहीं है जिससे कि सासादन गुणस्थानको मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता । तथा जिस अनन्तानुबन्धीके उदयसे दूसरे गुणस्थानमें जो विपरीताभिनिवेश होता है, वह अनन्तानुबन्धी दर्शनमोहनीयका भेद न होकर चारित्रका आवरण करनेवाला होनेसे चारित्रमोहनीयका भेद है । इसलिये दूसरे गुणस्थानको मिथ्यादृष्टि न कहकर सासादनसम्यग्दृष्टि कहा है ।
शंका - अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनोंका प्रतिबन्धक होनेसे उसे उभयरूप ( सम्यक्त्वचारित्रमोहनीय ) संज्ञा देना न्यायसंगत है ?
समाधान - यह आरोप ठीक नहीं, क्योंकि, यह तो हमें इष्ट ही है, अर्थात् अनन्तानुबन्धीको सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनोंका प्रतिबन्धक माना ही है। फिर भी परमागम में मुख्य tयकी अपेक्षा इसतरहका उपदेश नहीं दिया है ।
सासादन गुणस्थान विवक्षित कर्मके अर्थात् दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके बिना उत्पन्न होता है, इसलिये वह पारिणामिक है । और आसादनासहित
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