________________
१, १, ११.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणहाणवण्णणं
[१६७ सम्यग्मिथ्यारुच्यात्मको जीवः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति प्रतिजानीमहे । न विरोधोऽप्यनेकान्ते आत्मनि भूयसां धर्माणां सहानवस्थानलक्षणविरोधासिद्धेः । नात्मनोऽनेकान्तत्वमसिद्धमनेकान्तमन्तरेण तस्यार्थक्रियाकर्तृत्वानुपपत्तेः । अस्त्वेकस्मिन्नात्मनि भूयसां सहावस्थानं प्रत्यविरुद्धानां संभवो नाशेषाणामिति चेत्क एवमाह समस्तानामप्यवस्थितिरिति चैतन्याचैतन्यभव्याभव्यादिधर्माणामप्यक्रमेणैकात्मन्यवस्थितिप्रसङ्गात् । किन्तु येषां धर्माणां नात्यन्ताभावो यस्मिन्नात्मनि तत्र कदाचित्क्वचिदक्रमेण तेषामस्तित्वं प्रतिजानीमहे । अस्ति चानयोः श्रद्धयोः क्रमेणैकस्मिन्नात्मनि संभवस्ततोऽक्रमेण तत्र कदाचित्तयोः संभवेन भवितव्यमिति । न चैतत्काल्पनिकं पूर्वस्वीकृतदेवतापरित्यागेनाहन्नपि देव इत्यभिप्रायवतः पुरुषस्योपलम्भात् । पंचसु गुणेषु कोऽयं गुण इति चेत्क्षायोपशमिकः । गुणस्थानोंमें ही अन्तर्भाव मानना चाहिये । इसलिये सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामका तीसरा गुणस्थान नहीं बनता है ?
समाधान-युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि है ऐसा मानते हैं। और ऐसा मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, आत्मा अनेक-धर्मात्मक है, इसलिये उसमें अनेक धर्मोंका सहानवस्थानलक्षण विरोध असिद्ध है । अर्थात् एक साथ अनेक धर्मोंके रहनेमें कोई बाधा नहीं आती है। यदि कहा जाय कि आत्मा अनेक धर्मात्मक है यह बात ही असिद्ध है। सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, अनेकान्तके विना उसके अर्थक्रियाकारीपना नहीं बन सकता है।
शंका-जिन धर्मीका एक आत्मामें एकसाथ रहने में विरोध नहीं है, वे रहे, परंतु संपूर्ण धर्म तो एकसाथ एक आत्मामें रह नहीं सकते हैं ?
समाधान-कौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मोंका एकसाथ एक आत्मामें रहना संभव है ? यदि संपूर्ण धर्मोंका एकसाथ रहना मान लिया जावे तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभव्यत्व आदि धौका एकसाथ एक आत्मामें रहनेका प्रसंग आ जायगा । इसलिये संपूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मामें रहते हैं, अनेकान्तका यह अर्थ नहीं समझना चाहिये । किंतु अनेकान्तका यह अर्थ समझना चाहिये कि जिन धर्मोंका जिस आत्मामें अत्यन्त अभाव नहीं है वे धर्म उस आत्मामें किसी काल और किसी क्षेत्रकी अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते हैं, ऐसा हम मानते हैं। इसप्रकार जब कि समीचीन और असमीचीनरूप इन दोनों श्रद्धाओंका क्रमसे एक आत्मामें रहना संभव है, तो कदाचित् किसी आत्मामें एकसाथ भी उन दोनोंका रहना बन सकता है। यह सब कथन काल्पनिक नहीं है, क्योंकि, पूर्व स्वीकृत अन्य देवताके अपरित्यागके साथ साथ अरिहंत भी देव है ऐसी सम्यग्मिथ्यारूप श्रद्धावाला पुरुष पाया जाता है।
शंका-पांच प्रकारके भावों मेंसे तीसरे गुणस्थानमें कौनसा भाव है ? १ यथा कस्यचित् मित्रं प्रति मित्रत्वं, चैत्रं प्रयमित्रत्वामित्युभयात्मकत्वमाविरुद्धं लोके दृश्यते तथा कस्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org