Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ५.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे गुणहाणवण्णणं
[१५३ तद्विपरीतोऽनाहारः । उक्तं च
विग्गह-गइमावण्णा केवलिणो समुहदा अजोगी य ।
सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ॥ ९९ ॥ अन्विष्यमाणगुणस्थानानामनुयोगद्वारप्ररूपणार्थमुत्तरसूत्रमाह
एदेसि चेव चोहसण्हं जीवसमासाणं परूवणट्टदाए तत्थ इमाण अट्ठ अणियोगदाराणि णायव्वाणि भवंति ॥ ५॥ ____ 'तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि । एतदेवालं शेषस्य नान्तरीयकत्वादिति चेन्नैष दोषः, मन्दबुद्धिसत्वानुग्रहार्थत्वात् । अनुयोगो नियोगो भाषा विभाषा वार्तिकेत्यर्थः । उक्तं च
एक शरीरके योग्य तथा भाषा और मनके योग्य पुद्गलवर्गणाओंको जो नियमसे ग्रहण करता है उसको आहारक कहते हैं ॥९८॥
औदारिक आदि शरीरके योग्य पुद्गलपिण्डके ग्रहण नहीं करनेको अनाहार कहते हैं। कहा भी है
विग्रहगतिको प्राप्त होनेवाले चारों गतिके जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त हुए सयोगिकेवली तथा अयोगिकेवली और सिद्ध ये नियमसे अनाहारक होते हैं। शेष जीवोंको आहारक समझना चाहिये ॥ ९९॥
___अन्वेषण किये जानेवाले गुणस्थानोंके आठ अनुयोगद्वारोंके प्ररूपण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
___ इन ही चौदह जीवसमासोंके (गुणस्थानोंके ) निरूपण करने रूप प्रयोजनके होनेपर वहां आगे कहे जानेवाले ये आठ अनुयोगद्वार समझना चाहिये ॥५॥
शंका - 'तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि ' इतना सूत्र बनाना ही पर्याप्त था, क्योंकि, सूत्रका शेष भाग इसका अविनाभावी है । अतएव उसका स्वयं ग्रहण हो जाता है। उसे सूत्रमें निहित करनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मन्दबुद्धि प्राणियोंके अनुग्रहके लिये शेष भागको सूत्रमें ग्रहण किया गया है।
__ अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक ये पांचों पर्यायवाची नाम है। कहा भी है
१ प्रतरलोकपूरणसमुद्धातपरिणतसयोगिजिनाः । गो. जी., जी. प्र., टी. ६६६. २ गो. जी. ६६६.
३ तत्रानुयोजनमनुयोगः, किञ्च तत् ? श्रुते निजाभिधेयसम्बन्धनं, अथवा योग इति ब्यापार उच्यते, ततश्चानुरूपोऽनुकूलो वा योगो, यथा घटशब्देन घटो भण्यते, अणुना वा योगो अणुयोग इत्येवमादि। तथा निश्चितो योगो
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