________________
१, १, ८.] संत-परूवणाणुयोगदारे गुणहाणवण्णणं
[१५९ कालो द्विदि-अवधरणं अंतरं विरहो य सुण्ण-कालो य ।
भावो खलु परिणामो स-णाम-सिद्धं खु अप्पबहुं ॥ १०३ ।। प्रथमानुयोगस्वरूपनिरूपणार्थ सूत्रमाहसंतपरूवणदाए दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ॥ ८॥
चतुर्दशजीवसमासानामित्यनुवर्तते, तेनैवमाभिसम्बन्धः क्रियते चतुर्दशजीवसमासानां सत्प्ररूपणायामिति । सत्सत्वमित्यर्थः । कथम् ? अन्तर्भावितभावत्वात् । प्ररूपणा निरूपणा प्रज्ञापनेति यावत् । चतुर्दशजीवसमाससत्वप्ररूपणायामित्यर्थः । सच्छब्दोऽस्ति शोभनवाचकः, यथा सदभिधानं सत्यमित्यादि । अस्ति अस्तित्ववाचकः, सति सत्ये
अस्तित्वका शान हो गया है ऐसे पदार्थोके परिमाणका कथन करनेवाली संख्याप्ररूपणा है। वर्तमान क्षेत्रका वर्णन करनेवाली क्षेत्रप्ररूपणा है। अतीतस्पर्श और वर्तमानस्पर्शका वर्णन करनेवाली स्पर्शनप्ररूपणा है । जिसमें पदार्थोंकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन हो उसे कालप्ररूपणा कहते हैं । जिसमें विरहकाल अथवा शून्यकालका कथन हो उसे अन्तरप्ररूपणा कहते हैं । जो पदार्थोके परिणामोंका वर्णन करे वह भावप्ररूपणा है । तथा अल्पबहुत्वप्ररूपणा अपने नामसे ही सिद्ध है ॥ १०२-१०३ ॥ ___ अब पहले सदनुयोगके स्वरूपका निरूपण करनेके लिये सूत्र कहते हैं।
सत्प्ररूपणामें ओघ अर्थात् सामान्यकी अपेक्षासे और आदेश अर्थात् विशेषकी अपेक्षासे इसतरह दो प्रकारका कथन है ॥ ८ ॥
इस सूत्रमें 'चतुर्दशजीवसमासानाम् ' इस पदकी अनुवृत्ति होती है, इसलिये उस पदके साथ ऐसा संबन्ध कर लेना चाहिये कि 'चौदह जीवसमासोंकी सत्प्ररूपणामें'। यहां पर सत्का अर्थ सत्व है।
शंका-यहां सत्का अर्थ सत्व करनेका क्या कारण है ?
समाधान--- क्योंकि, सत्में भावरूप अर्थ अन्तर्भूत है, इसलिये यहां पर सत्का अर्थ सत्व लिया गया है।
प्ररूपणा, निरूपणा और प्रशापना ये सब पर्यायवाची नाम हैं । इसलिये 'संतपरूवणदाए' इसपदका अर्थ यह हुआ कि चौदह जीवसमासोंके सत्वके निरूपण करनेमें | 'सत्' शब्द शोभन अर्थात् सुन्दर अर्थका भी वाचक है। जैसे, सदभिधान अर्थात् शोभनरूप कथनको
१ संतंति विजमाण एयस्स पयस्स जा परूवणया । गइयाइएसु वत्थुसु संतपयपरूवणा सा उ | जीवस्स च जं संतं जम्हा तं तेहिं तेसु वा पयति । तो संतस्स पयाइं ताई तेसुं परूवणया॥ वि.भा. ४०७-४०८. २ संखेओ ओघो ति य गणसण्णा सा च मोहजोगभवा । वित्थारादेसो ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ॥
गो. जी. ३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org