Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ७.] संत-परूवणाणुयोगदारे गुणहाणवण्णणं
[१५७ परूवणा, ण पुण कालंतरेहितो? इदि ण, अणवगय-खेत्त-फोसणस्स तकालंतर-जाणणुवायाभावादो । ण च संतमत्थमागमो ण परूवेइ तस्स अत्थावयत्तप्पसंगादो । णेदाणिं तत्कालंतरं पडिवजदीदि चेण्ण, तप्पढणे विरोहाभावादो । तहा भावप्पाबहुगाणं पि परूवणा खेत्त-फोसणाणुगममंतरेण ण तव्विसया होति ति पुव्वमेव खेत्त-फोसण-परूवणा कायचा । सेसाहियारेसु संतेमु ते मोत्तूण किमहूँ कालो पुवमेव उच्चदे ? ण ताव अंतरपरूवणा एत्थ भणण-जोग्गा काल-जोणित्तादो । ण भावो वि तस्स तदो हेट्ठिमअहियार-जोणित्तादो । ण अप्पाबहुगं पि तस्स वि सेसाणियोग-जोणित्तादो। परिसेसादो कालो चेव तत्थ परूवणा-जोगो त्ति । भावप्पाबहुगाणं जोणित्तादो पुवमेवंतरपरूवणा
स्पर्शन प्ररूपणाके पहले क्षेत्रप्ररूपणाका वर्णन रहा आवे इसमें कोई आपत्ति नहीं, परंतु काल और अन्तरप्ररूपणाके पहले क्षेत्रप्ररूपणाका वर्णन संभव नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, जिसने क्षेत्र और स्पर्शनको नहीं जाना है उसे तत्संबन्धी काल और अन्तरके जाननेका कोई भी उपाय नहीं प्राप्त हो सकता है। और आगम, जिस प्रकारसे वस्तु-व्यवस्था है, उसीप्रकारसे प्ररूपण नहीं करे यह हो नहीं सकता है । यदि ऐसा नहीं माना जावे तो उस आगमको अर्थापदत्व अर्थात् अनर्थकपदत्वका प्रसंग प्राप्त हो जायगा।
शंका-- तो भी क्षेत्र और स्पर्शनप्ररूपणाके पश्चात् काल और अन्तरप्ररूपणाका कथन प्राप्त नहीं होता है ?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, क्षेत्र और स्पर्शनके बाद काल और अन्तरप्ररूपणाके कथन करनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
उसीप्रकार भाव और अल्पबहुत्वकी भी प्ररूपणा क्षेत्र और स्पर्शनानुगमके विना क्षेत्र और स्पर्शनको विषय करनेवाली नहीं हो सकती है, इसलिये इन सबके पहले ही क्षेत्र और स्पर्शनानुगमका कथन करना चाहिये।
शंका-अन्तरादि शेष अधिकारोंके रहते हुए भी उन्हें छोड़कर कालाधिकारका कथन पहले क्यों किया गया है ?
समाधान-यहांपर (स्पर्शनप्ररूपणाके पश्चात् ) अन्तरप्ररूपणाका कथन तो किया नहीं जा सकता है, क्योंकि, अन्तरप्ररूपणाका मूल-आधार (योनि) कालप्ररूपणा ही है। स्पर्शनप्ररूपणाके बाद भावप्ररूपणाका भी वर्णन नहीं कर सकते हैं, क्योंकि, कालप्ररूपणासे नीचेका अधिकार (अन्तराधिकार ) भावप्ररूपणाका योनिरूप है। उसीप्रकार स्पर्शनप्ररूपणाके बाद अल्पबहुत्वप्ररूपणाका भी कथन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि, शेषानुयोग (भावानुयोग) अल्पबहुत्वप्ररूपणाका योनिरूप है । इसप्रकार जब स्पर्शनप्ररूपणाके पश्चात् अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इनमेंसे किसीका भी प्ररूपण नहीं हो सकता था तब परिशेषन्यायसे वहां पर काल ही प्ररूपणाके योग्य है यह बात सिद्ध हो जाती है।
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