Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१३८ ]
छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १, ४,
चीत इतिकायः । नेष्टकादिचयेन व्यभिचारः पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणात् । औदारिकादिकर्मभिः पुद्गलविपाकिभिधीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्तेः । कार्मणशरीरस्थानां जीवानां पृथिव्यादिकर्मभिश्चितनोकर्माभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणस्तत्रापि सच्चतस्तद्व्यपदेशस्य न्याय्यत्वात्। अथवा आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्डः कायः । अत्रापि स दोषो न निर्वायत
विशेषभाव से रहित अपनेको मानते हुए एक एक होकर अर्थात् कोई किसीकी आज्ञा आदिके पराधीन न होते हुए स्वयं स्वामीपनेको प्राप्त होते हैं, उसीप्रकार इन्द्रियां भी अपने अपने स्पर्शादिक विषयका ज्ञान उत्पन्न करने में समर्थ हैं और दूसरी इन्द्रियोंकी अपेक्षासे रहित हैं, अतएव अहमिन्द्रोंकी तरह इन्द्रियां जानना चाहिये ।
जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं। यहां पर जो संचित किया जाता है। उसे काय कहते हैं ऐसी व्याप्ति बना लेने पर कायको छोड़कर ईंट आदिके संचयरूप विपक्ष में भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अतएव व्यभिचार दोष आता है । ऐसी शंका मनमें निश्चय करके आचार्य कहते हैं कि इसतरह ईंट आदिके संचयके साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मोंके उदयसे इतना विशेषण जोड़कर ही ' जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गई है ।
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शंका - पुद्गलविपाकी औदारिक आदि कर्मों के उदयसे जो संचित किया जाता है उसे काय कहते हैं, कायकी ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गई है ?
समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्मके अभाव रहने पर केवल औदारिक आदि नामकर्मके उदयसे नोकर्मवर्गणाओं का संचय नहीं हो सकता है ।
शंका - कार्मणकाययोगमें स्थित जीवके पृथिवी आदिके द्वारा संचित हुए नोकर्मपुगलका अभाव होनेसे अकायपना प्राप्त हो जायगा ?
समाधान - ऐसा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलोंके संचयका कारण पृथिवी आदि कर्मसहकृत औदारिकादि नामकर्मका उदय कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें भी पाया जाता है, इसलिये उस अवस्थामें भी कायपनेका व्यवहार बन जाता है ।
अथवा, योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचित हुए औदारिकादिरूप पुद्गलपिण्डको काय
कहते हैं ।
शंका-कायका इसप्रकारका लक्षण करने पर भी पहले जो दोष दे आये हैं, वह दूर नहीं होता है । अर्थात् इसतरह भी जीवके कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें अकायपने की प्राप्ति होती है ।
एकैके भूत्वा आज्ञादिभिरपरतन्त्राः सन्तः ईशते प्रभवन्ति स्वामिभावं श्रयन्ति तथा स्पर्शनादीन्द्रियाण्यपि स्पर्शादिस्वस्वविषयेषु ज्ञानमुत्पादयितुमीशते, परानपेक्षया प्रभवन्ति, ततः कारणादमिन्द्रा इव इन्द्रियाणि इति । जी. प्र. टी.
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