Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, ४.] संत-परूवणाणुयोगदारे मग्गणासरूघवण्णणं
[१४५ यय-समिइ-कसायाणं दंडाण तहिंदियाण पंचण्डं ।
धारण-पालण-णिग्गह-चाग-जया संजमो भणिओ ॥ ९२ ॥ दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम् । नाक्ष्णालोकेन चातिप्रसङ्गस्तयोरनात्मधर्मत्वात् । दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्युच्यमाने ज्ञानदर्शनयोरविशेषः स्यादिति चेन्न, अन्तर्बहिर्मुखयोश्चित्प्रकाशयोर्दर्शनज्ञानव्यपदेशभाजोरेकत्वविरोधात् । किं तच्चैतन्यमिति चेत्रिकालगोचरानन्तपर्यायात्मकस्य जीवस्वरूपस्य स्वक्षयोपशमवशेन संवेदनं चैतन्यम् । स्वतो व्यतिरिक्त
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह इन पांच महाव्रतोंका धारण करना; ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेप, उत्सर्ग इन पांच समितियोंका पालनाः क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चार कषायोंका निग्रह करना; मन, वचन और कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पांच इन्द्रियोंका जय; इसको संयम कहते हैं ॥९२॥
जिसके द्वारा देखा जाय अर्थात् अवलोकन किया जाय उसे दर्शन कहते हैं । दर्शनका इसप्रकारका लक्षण करने पर चक्षु इन्द्रिय और आलोक भी देखने में सहकारी होनेसे उनमें दर्शनका लक्षण चला जाता है, इसलिये अतिप्रसङ्ग दोष आता है । शङ्काकारकी इसप्रकारकी शङ्काको मनमें निश्चय करके आचार्य कहते हैं कि इसतरह चक्षु इन्द्रिय और आलोकके साथ अतिप्रसंग दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय और आलोक आत्माके धर्म नहीं है। यहां चक्षुसे द्रव्य चक्षुका ही ग्रहण करना चाहिये।
शंका-जिसके द्वारा देखा जाय, जाना जाय उसे दर्शन कहते हैं। दर्शनका इसप्रकार लक्षण करने पर शान और दर्शनमें कोई विशेषता नहीं रह जाती है, अर्थात् दोनों एक हो जाते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तर्मुख चित्प्रकाशको दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाशको ज्ञान माना है, इसलिये इन दोनोंके एक होनेमें विरोध आता है।
शंका--वह चैतन्य क्या वस्तु है ?
समाधान-त्रिकालविषयक अनन्तपर्यायरूप जीवके स्वरूपका अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार जो संवेदन होता है उसे चैतन्य कहते हैं।
शंका-अपनेसे भिन्न बाह्य पदार्थों के ज्ञानको प्रकाश कहते हैं, इसलिये अन्तर्मुख
१ गो. जी. ४६५.
२ उत्तरज्ञानोत्पतिनिमित्तं यत्प्रयत्नं तद्रूपं यत्स्वस्यात्मनः परिच्छेदनमवलोकनं तदर्शनं भण्यते । तदनन्तरं यद् बहिर्विषये विकल्परूपेण पदार्थग्रहणं तज्ज्ञानमिति वार्तिकम् । यथा कोऽपि पुरुषो घटविषयविकल्पं कुर्वन्नास्ते, पश्चात्पटपरिज्ञानार्थ चित्ते जाते सति घटविकल्पाद् व्यावृत्त्य यत्स्वरूपे प्रथममवलोकनं परिच्छेदनं करोति तदर्शन मिति । तदनन्तरं पटोऽयमिति निश्चयं यद् बहिर्विषयरूपेण पदार्थग्रहणविकल्पं करोति तद् ज्ञानं भण्यते। बृ. द्र.सं.. ८१-८२.
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