Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, १, १. __ अथवा जिनपालितो निमित्तम्, हेतुर्मोक्षः, शिक्षकाणां हर्षोत्पादनं निमित्तहेतुकथने प्रयोजनम् । परिमाणमुच्चदे । अक्खर-पय-संघाय-पडिवत्ति-अणियोगद्दारेहि संखेजं, अत्थदो अणंतं । पदं पडुच्च अट्ठारह-पद-सहस्सं । शिक्षकाणां हर्पोत्पादनार्थं मतिव्याकुलताविनाशनार्थं च परिमाणमुच्यते । णामं जीवट्ठाणमिदि । कारणं पुव्वं व वत्तव्यं ।
तत्थ कत्ता दुविहो', अत्थ-कत्ता गंथ-कत्ता चेदि । तत्थ अत्थ-कत्ता दयादीहि चउहि परूविज्जदि। तत्र तस्य तावद् द्रव्यनिरूपणं क्रियते। स्वेद-रजो-मल-रक्तनयनकटाक्षशरमोक्षादि-शरीरगताशेषदोषाषित-समचतुरस्रसंस्थान-वज्रवृषभसंहनन-दिव्यगन्धप्रमाणस्थितनखरोम-निर्भूषणायुधाम्बरभय-सौम्यवदनादि-विशिष्टदेहधरः चतुर्विधोपसर्ग
भथवा, जिनपालित ही इस श्रुतावतारके निमित्त है और उसका हेतु मोक्ष है, अर्थात् मोक्षके हेतु जिनपालितके निमित्तसे इस श्रुतका अवतार हुआ है। यहां पर निमित्त और हेतुके कथन करनेसे पाठकजनोंको हर्षका उत्पन्न कराना ही प्रयोजन है।
अब परिमाणका व्याख्यान करते हैं, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति, और अनुयोग द्वारोंकी अपेक्षा श्रुतका परिमाण संख्यात है और अर्थ अर्थात् तद्वाच्य विषयकी अपेक्षा अनन्त है। पदकी अपेक्षा अठारह हजार प्रमाण है। शिक्षकजनोंको हर्ष उत्पन्न करानेके लिये और मतिसंबन्धी व्याकुलता दूर करने के लिये यहां पर परिमाण कहा गया है।
नाम, इस शास्त्रका नाम जीवस्थान है।
कारण, कारणका व्याख्यान पहले कर आये हैं। उसीप्रकार यहां पर भी उसका व्याख्यान करना चाहिये।
कर्ताके दो भेद हैं, अर्थकर्ता और ग्रन्थकः । इनमेंसे अर्थकाका द्रव्यादिक चार द्वारोंके द्वारा निरूपण किया जाता है। उनमेंसे पहले द्रव्यकी अपेक्षा अर्थकर्ताका निरूपण करते हैं
पसीना, रज अर्थात् बाह्य कारणेसे शरीरमें उत्पन्न हुआ मल, मल अर्थात् शरीरसे उत्पन्न हुआ मल, रक्त-नेत्र और कटाक्षरूप बाणोंका छोड़ना आदि शरीरमें होनेवाले संपूर्ण दोषोंसे रहित, समचतुरस्र संस्थान, वज्रवृषभनाराच संहनन, दिव्य-सुगन्धमयी, सदैव योग्य प्रमाणरूप नल और रोमवाले, आभूषण आयुध, वस्त्र और भयरहित सौम्य-मुख आदिसे
१ विविहत्थेहि अणतं संखेज अक्खराणगणणाए । एदं पमाणमुदिदं सिसाणं मइविकासयर ।।
ति.प.१, ५३. २ कसारी दुत्रियप्पी णादवी अथगंथभेदेहि । दव्वादिच उप्पयारेहिं भासिमो अस्थकत्ता। ॥ सेदरजाइमलेणे रत्तच्छिकदुक्खवाणमोक्खेहिं । श्यपहुदिदेहदोसेहिं संततमदूसिदसरीरो ॥ आदिमसंहणणजुदी समचउरस्संगचारसंठाणों । दिव्ववरगंधधारी पमाणविदरोमणखरूवो ॥ णि भूसणायुधंबरमीदी सोम्माणणादिदिव्वतणू। अहभाहियसहस्सपमाणवरलक्खणोपेदो॥ चउविहउवसगोहिं णिच्च विमुको कसायपरिहीणो । हपहदिपरिसहेहिं परिचती रायदोसेहिं ।।
ति.प. १,५५-५९.
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