Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, २. संत-पख्वणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं
[१२९ एत्थतण-दव्याणियोगस्स वि किं ण गहणं कीरदि ति उत्ते ण, मिच्छाइटिआदि-गुणहाणेहि विणा एयस्स बंधट्ठाणस्स बंधया जीवा एत्तिया इदि सामण्णेण वुत्तत्तादो । बंधगे उत्त-दव्याणियोगस्स गहणं कीरदि, तत्थ बंधगा मिच्छाइट्टी एत्तिया सासणादिया एत्तिया इदि उत्तत्तादो। कधमजोगि-गुणट्ठाणस्स अबंधगस्स दव्व-संखा परूविजदि त्ति ण एस दोसो, भूद-पुव्व-गइमस्सिऊण तस्स भणण-संभवादो। जीवपयडि-संत-बंधमस्सिऊण उत्तमिदि वा । एवं भावस्स वि वत्तव्यं । एवं जीवाणस्स अह-अणियोगद्दार-परूवणं कदं ।
प्रकृतिस्थान अधिकारमें कहे गये द्रव्यानुयोगका ग्रहण इस जीवस्थानमें क्यों नहीं किया है। अर्थात् प्रकृतिस्थान अधिकारके सदादि छह अनुयोगोंमेंसे जिसप्रकार जीवस्थानके सदादि छह अनुयोगद्वारोंकी उत्पत्ति बतलाई है, उसीप्रकार प्रकृतिस्थानाधिकारके द्रव्यामुयोगमेंसे जीवस्थानके द्रव्यानुयोगकी उत्पत्तिका कथन क्यों नहीं किया गया है। इसप्रकार की शंका करने पर आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि, प्रकृतिस्थानके द्रव्यानुयोग अधिकारमें मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों की अपेक्षाके विना इस बन्धस्थानके बन्धक जीव इतने हैं। ऐसा केवल सामान्यरूपसे कथन किया गया है। और बन्धक अधिकारके द्रव्यानयोग प्रकरणमें इस प्रकृतिस्थानके बन्धक मिथ्यादृष्टि जीव इतने हैं, सासादन सम्यग्दृष्टि जीव इतने हैं ऐसा विशेषरूपसे कथन किया गया है। इसलिये बन्धक अधिकारमें कहे गये द्रव्यानुयोगका ग्रहण इस जीवस्थानमें किया है। अर्थात् बन्धक अधिकारके द्रव्यानुगम प्रकरणसे जीवस्थानका द्रव्यप्रमाणानुगम प्रकरण निकला है।
शंका - अयोगी गुणस्थानमें कर्मप्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है, इसलिये उनके कर्मप्रकृतिबन्धकी अपेक्षा द्रव्यसंख्या कैसे कही जावेगी ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, भूतपूर्व न्यायका आश्रय लेकर अयोगी गुणस्थानमें भी द्रव्यसंख्याका कथन संभव है। अर्थात् जो जीव पहले मिथ्यादृष्टि आ गुणस्थानों में प्रकृतिस्थानोंके बन्धक थे वे ही अयोगी हैं । इसलिये अयोगी गुणस्थानमें भी द्रव्यसंख्याका प्रतिपादन किया जा सकता है। अथवा, जीवके सत्वरूप प्रकृतिबन्धका आश्रय लेकर अयोगी गुणस्थानमें द्रव्यसंख्याका प्ररूपण किया गया है।
भावानुगमका कथन भी इसीप्रकार समझ लेना चाहिये।
विशेषार्थ-जीवस्थानकी भावप्ररूपणा प्रकृतिस्थानके भावानुगममेंसे न निकल कर एकैकोत्तरप्रकृतिबन्धके जो चौवीस अधिकार हैं उनके तेवीसवें भावानुगममेंसे निकली है। इसका कारण यह है कि प्रकृतिस्थानके भावानुगममें भावोंका सामान्यरूपसे कथन है और एकैकोत्तरप्रकृतिस्थानके भावानुगममें भावोंका विशेषरूपसे कथन है । इसतरह जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वारोंका निरूपण किया।
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