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१, १, ४.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मग्गणासरूववण्णणं
[१३३ तृतीयानिर्देशोऽप्यविरुद्धः स कथं लभ्यते ? न, देशामर्शकत्वानिर्देशस्य । यत्र च गत्यादौ विभक्तिर्न श्रूयते तत्रापि 'आइ-मझंत-वण्ण-सर-लोवो' इति लुप्ता विभक्तिरित्यभ्यूह्यम् । अहवा 'लेस्सा-भविय-सम्मत्त-सण्णि-आहारए' चेदि एकपदत्वान्नावयवविभक्तयः श्रूयन्ते ।
अर्थ स्थाजगति चतुर्भिर्मार्गणा निष्पाद्यमानोपलभ्यते । तद्यथा, मृगयिता मृग्यं मार्गणं मार्गणोपाय इति । नात्र ते सन्ति, ततो मार्गणमनुपपन्नमिति । नैष दोषः, तेषामप्यत्रोपलम्भात् । तद्यथा, मृगयिता भव्यपुण्डरीकः तत्वार्थश्रद्धालु वः, चतुर्दशगुण
__ शंका - सूत्रमें गति आदि प्रत्येक पदके साथ सप्तमी विभक्तिका निर्देश क्यों किया
गया है?
सामधान-उन गति आदि मार्गणाओंको जीवोंका आधार बतानेके लिये सप्तमी विभक्तिका निर्देश किया है।
इसीतरह सूत्रमें प्रत्येक पदके साथ तृतीया विभक्तिका निर्देश भी हो सकता है, इसमें कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-जब कि प्रत्येक पदके साथ सप्तमी विभक्ति पाई जाती है तो फिर तृतीया विभक्ति कैसे संभव है?
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, इस सूत्रमें प्रत्येक पदके साथ जो सप्तमी विभक्तिका निर्देश किया है वह देशामर्शक है, इसलिये तृतीया विभक्तिका भी ग्रहण हो जाता है।
___ सूत्रोक्त गति आदि जिन पदों में विभक्ति नहीं पायी जाती है, वहां पर भी ' आइमज्झंतवण्णसरलोवो' अर्थात् आदि, मध्य और अन्तके वर्ण और स्वरका लोप हो जाता है। इस प्राकृतव्याकरणके सूत्रके नियमानुसार विभक्तिका लोप हो गया है ऐसा समझना चाहिये । अथवा 'लेस्साभवियसम्मतसपिणआहारए' यह एक पद समझना चाहिये। इसलिये लेश्या आदि प्रत्येक पदमें विभक्तियां देखनेमें नहीं आती हैं।
शंका-लोकमें अर्थात् व्यावहारिक पदार्थोंका विचार करते समय भी चार प्रकारसे अन्वेषण देखा जाता है। वे चार प्रकार ये हैं, मृगयिता, मृग्य, मार्गण और मार्गणोपाय । परंतु यहां लोकोत्तर पदार्थके विचारमें वे चारों प्रकार तो पाये नहीं जाते हैं, इसलिये मार्गणाका कथन करना नहीं बन सकता है ?
समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस प्रकरणमें भी वे चारों प्रकार पाये जाते हैं। वे इसप्रकार हैं, जीवादि पदार्थोंका श्रद्धान करनेवाला भव्यपुण्डरीक मृगयिता
१ ननु लोके व्यावहारिकपदार्थस्य विचारे कश्चिन्मृगयिता किंचिन् मृग्यं कापि मार्गणा कश्चिन्मार्गणोपाय इति चतुष्टयमस्ति । अत्र लोकोत्तरेऽपि तद् वक्तव्यमिति चेदुच्यते, मृगायिता भव्यवरपुंडरीकः गुरुः शिष्यो वा. | मृग्या: गुणस्थानादिविशिष्टाः जीवाः, मार्गणा गुरुशिष्ययोजींवतत्वविचारणा । मार्गणोपायाः गतीन्द्रियादयः पंच भावविशेषाः करणाधिकरणरूपाः सन्तीति लोकव्यवहारानुसारेण लोकोत्तरव्यवहारोऽपि वर्तते । गो. जी., म. प्र., टी. १४१.
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