Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१३२] छक्खंडागमे जीवट्ठाण
[१, १,४. जाहि व जासु व जीवा मग्गिज्जते जहा तहा दिट्ठा ।
ताओ चोइस जाणे सुदणाणे मग्गणा होति ॥ ८३ ॥ तं जहा ॥३॥
'तच्छब्दः पूर्वप्रक्रान्तपरामर्शी' इति न्यायात् 'तत्' मार्गणविधानं । 'जहा' यथेति यावत् । एवं पृष्टवतः शिष्यस्य सन्देहापोहनार्थमुत्तरसूत्रमाह -
गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि ॥४॥
गताविन्द्रिये काये योगे वेदे कषाये ज्ञाने संयमे दर्शने लेश्यायां भव्ये सम्यक्त्वे संज्ञिनि आहारे च जीवसमासाः मृग्यन्ते । 'च' शब्दः प्रत्येकं परिसमाप्यते समुच्चयार्थः । 'इति' शब्दः समाप्तौ वर्तते । सप्तमीनिर्देशः किमर्थः ? तेषामधिकरणत्वप्रतिपादनार्थः ।
श्रुतज्ञान अर्थात् द्रव्यश्रुतरूप परमागममें जीव पदार्थ जिसप्रकार देखे गये हैं उसीप्रकारसे वे जिन नारकत्वादि पर्यायोंके द्वारा अथवा जिन नारकत्वादिरूप पर्यायोंमें खोजे जाते हैं उन्हें मार्गणा कहते है । और वे चौदह होती हैं ऐसा जानो ॥ ८३ ॥
वे चौदह मार्गणास्थान कौनसे हैं ? ॥३॥
'तत् शब्द पूर्व प्रकरणमें आये हुए अर्थका परामर्शक होता है। इस न्यायके अनुसार 'तत् ' इस शब्दसे मार्गणाओंके भेदोंका ग्रहण करना चाहिये । 'जहा ' इस पदका अर्थ जैसे' होता है। वे जैसे? इसतरह पंछनेवाले शिष्यके सन्देहको दूर करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संझी और आहार ये चौदह मार्गणाएं हैं और इनमें जीव खोजे जाते हैं ॥४॥
___ गतिमें, इन्द्रियमें, कायमें, योगमें, वेदमें, कषायमें, ज्ञानमें, संयममें, दर्शनमें, लेश्यामें, भव्यत्वमें, सम्यक्त्वमें, संज्ञीमें और आहारमें जीवसमासोंका अन्वेषण किया जाता है । इस सूत्रमें 'च' शब्द समुच्चयार्थक है, इसलिये प्रत्येक पदके साथ उसका संबन्ध कर लेना चाहिये। और 'इति' शब्द समाप्तिरूप अर्थमें है। जिससे यह तात्पर्य निकलता है कि मार्गगाएं चौदह ही होती हैं।
१ गो. जी. १४१. गत्यादिमार्गणा यदा एकजीवस्य नारकवादिपर्यायस्वरूपा विवक्षितास्तदा 'यामिः' इतीत्थंभूतलक्षणे तृतीया विभक्तिः । यदा एकद्रव्यं प्रति पर्यायाणामधिकरणता विवक्ष्यते तदा ' यासु' इत्यधिकरणे सप्तमी विभक्तिः, विवक्षावशात्कारकप्रवृत्तिरिति न्यायस्य सद्भावान । जी. प्र. टी. श्रुतं ज्ञायतेऽनेनेति भ्रतज्ञानं, वर्णपदवाक्यरूपं द्रव्यश्रुतं गुरुशिष्यप्रशिभ्यपरम्परया द्रव्यागमस्य अविच्छिन्नप्रवाहेण प्रवर्तमानत्वात् । तर • यथा दृष्टास्तथा जानीहि ' इति वचनेन शास्त्रकारस्य कालदोषात्प्रमादादा यस्खलितं तन्मुक्वा परमागमानुसारेण घ्याख्यातारः अध्येता। वाविरुद्धमेव वस्तुस्वरूपं गृह्णन्तीति प्रदर्शितमाचार्यः । म.प्र. टी.
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