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१३४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, ४. विशिष्टजीवा मृग्यं, मृग्यस्थाधारतामास्कंदन्ति मृगयितुः करणतामादधानानि वा गत्यादीनि मार्गणम्, विनेयोपाध्यायादयो मार्गणोपाय इति । सूत्रे शेषत्रितयं परिहतमिति मार्गणमेवोक्तमिति चेन्न, तस्य देशामर्शकत्वात्, तन्नान्तरीयकत्वाद्वा ।
गम्यत इति गतिः। नातिव्याप्तिदोषः सिद्धैः प्राप्यगुणाभावात् । न केवलज्ञानादयः प्राप्यास्तथात्मकैकस्मिन् प्राप्यप्रापकभावविरोधात् । कषायादयो हि प्राप्याः
औपाधिकत्वात् । गम्यत इति गतिरित्युच्यमाने गमनक्रियापरिणतजीवप्राप्यद्रव्यादीअर्थात् लोकोत्तर पदार्थोंका अन्वेषण करनेवाला है। चौदह गुणस्थानोंसे युक्त जीव मृग्य अर्थात् अन्वेषण करने योग्य हैं। जो मृग्य अर्थात् चौदह गुणस्थानविशिष्ट जीवोंके आधारभूत हैं, अथवा अन्वेषण करनेवाले भव्य जीवको अन्वेषण करनेमें अत्यन्त सहायक कारण हैं ऐसी गति आदिक मार्गणा हैं । शिष्य और उपाध्याय आदिक मार्गणाके उपाय हैं।
शंका-इस सूत्रमें मृगयिता, मृग्य और मार्गणोपाय इन तीनको छोड़कर केवल मार्गणाका ही उपदेश क्यों दिया गया है ?
समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, गति आदि मार्गण(वाचक पद देशा मर्शक है, इसलिये इस सूत्रमें कही गई मार्गणाओंसे तत्संबन्धी शेष तीनोंका ग्रहण हो जाता है। अथवा मार्गणा पद शेष तीनोंका अविनाभावी है, इसलिये भी केवल मार्गणाका कथन करनेसे शेष तीनोंका ग्रहण हो जाता है।
जो प्राप्त की जाय उसे गति कहते हैं। गतिका ऐसा लक्षण करनेसे सिद्धोंके साथ अतिव्याप्ति दोष भी नहीं आता है, क्योंकि, सिद्धोंके द्वारा प्राप्त करने योग्य गुणोंका अभाव है। यदि केवलज्ञानादि गुणोंको प्राप्त करने योग्य कहा जावे, सो भी नहीं बन सकता, क्योंकि, केवलज्ञानस्वरूप एक आत्मामें प्राप्य प्रापकभावका विरोध है। उपाधिजन्य होनेसे कषायादिक भावोंको ही प्राप्त करने योग्य कहा जा सकता है। परंतु वे सिद्धोंमें पाये नहीं जाते हैं. इसलिये सिद्धोंके साथ तो अतिव्याप्ति दोष नहीं आता है।
शंका-जो प्राप्त की जाय उसे गति कहते हैं। गतिका ऐसा लक्षण करने पर गमनरूप क्रियामें परिणत जीवके द्वारा प्राप्त होने योग्य द्रव्यादिकको भी गति यह संक्षा प्राप्त हो जावेगी, क्योंकि, गमनक्रियापरिणत जीवके द्वारा द्रव्यादिक ही प्राप्त किये जाते हैं?
१ 'गम्यत इति गतिः' एवमुच्यमाने गमनक्रियापरिणतजीवप्राप्यद्रव्यादीनामापे गतिव्यपदेशः स्यात? तन्न, गतिनामकर्मोदयोत्पन्नजीवपर्यायस्यैव गतित्वाभ्युपगमात् । गमनं वा गतिः। एवं सति ग्रामारामादिगमनस्यापि गतित्वं प्रसज्यते । तन्न, मवाद भवसंक्रातेरेव विवक्षितत्वात् । गमनहेतुवी गतिरित्यापे भण्यमाने शकटादेपि गतित्वं प्राप्रोति । तन्न, भवांतरगमनहेतोगतिनामकर्मणो गतित्वाभ्युपगमात् । जी. प्र., टी. अत्र मार्गणाप्रकरणे गतिनामकर्म न गृह्यते, वक्ष्यमाणनारकादिगतिग्रपंचस्य नारकादिपर्यायेष्वेव संभवात । गो. जी., मं. प्र., टी. १४६. .....
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