Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं विशेषकालयोरभावात् ।
पर्यायार्थिको द्विविधः, अर्थनयो व्यञ्जननयश्चेति । द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनययोः किंकृतो भेदश्चेदुच्यते', ऋजुसूत्रवचनविच्छेदो मूलधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिकाः । विच्छिद्यतेऽस्मिन् काल इति विच्छेदः । ऋजुसूत्रवचनं नाम वर्तमानवचनं, तस्य विच्छेदः ऋजुसूत्रवचनविच्छेदः । स कालो मूल आधारो येषां नयानां ते पर्यायार्थिकाः । ऋजुसूत्रवचनविच्छेदादारभ्य आ एकसमयावस्तुस्थित्यध्यवसायिनः पर्यायार्थिका इति यावत् ।
सामान्य और विशेषकालका अभाव है।
विशेषार्थ- एवंभूतनयसे लेकर ऊपर ऋजुसूत्र नय तक पूर्व पूर्व नय सामान्य रूपसे और उत्तरोत्तर नय विशेषरूपसे वर्तमान कालवर्ती पर्यायको विषय करते हैं। इसप्रकार सामान्य और विशेष दोनों ही काल द्रव्यार्थिक नयके विषय नहीं होते हैं। इस विवक्षासे द्रव्यार्थिक नयके तीनों भेदोंको नित्यवादी कहा है। अथवा, द्रव्यार्थिक नयमें कालभेदको विषक्षा ही नहीं है, इसलिये उसमें सामान्य और विशेषकालका अभाव कहा है।
अर्थनय और व्यंजन (शब्द) नयके भेदसे पर्यायार्थिक नय दो प्रकारका है। शंका-द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयमें किसप्रकार भेद है ?
समाधान-ऋजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोंका विच्छेद जिस कालमें होता है, वह (काल) जिन नयोंका मूल आधार है वे पर्यायार्थिकनय हैं। विच्छेद अथवा अन्त जिस कालमें होता है उस कालको विच्छेद कहते हैं। वर्तमानवचनको ऋजुसूत्रवचन कहते हैं, और उसके विच्छेदको ऋजुसूत्रवचनविच्छेद कहते हैं। वह ऋजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोंका विच्छेदरूप काल जिन नयोंका मूल आधार है उन्हें पर्यायार्थिकनय कहते हैं। अर्थात् ऋजुसूत्रके प्रतिपादक वचनोंके विच्छेदरूप समयसे लेकर एक समय पर्यन्त वस्तुकी स्थितिका निश्चय करनेवाले पर्यायार्थिकनय हैं। इन पर्यायार्थिक नयोंके अतिरिक्त शेष शुद्धाशुद्धरूप द्रव्यार्थिक
अर्थबोधेषु कुशलो भवो वा नैगमः । अथवा नकै गमाः पन्थानो यस्य स नकंगमः । तत्रार्य सर्वत्र सदित्येवमनुगता. कारावबोधहेतुभूतां महासत्तामिच्छति अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतं च सामान्यविशेषं द्रव्यत्वादि व्यावृत्तावबोधहेतुभूत च नित्यद्रव्यवृत्तिमन्त्यं विशेषमिति । स्था. सू. पृ. ३७१. सिद्धसेनीयाः पुनः षडेव नयानभ्युपगतवन्तः, नैगमस्य संग्रहव्यवहारयोरन्तर्भावविवक्षणात । तथाहि, यदा नैगमः सामान्यप्रतिपत्तिपरस्तदा स संग्रहेऽन्तर्भवति सामान्याभ्युपगमपरत्वात विशेषाभ्युपगमनिष्ठस्तु व्यवहारे । आ. सू. पू. ७.
ध्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः तद्भवलक्षणसामान्येनाभिन्नसादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमामिन च वस्वभ्युपगच्छन् द्रव्याथिक इति यावत् । परि भेदं ऋजुसूत्रवचन विच्छेदं एति गच्छतीति पर्यायः। संपर्यायः अर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पाठयन् पर्यायार्थिक इनवगन्तव्यः । जयब. अ. पृ. २७.
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