Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
१, १, २.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं
[११३ वय-धुवत्तादीणं वण्णणं कुणइ । चूलिया पंचविहा, जलगया थलगया मायागया रूवगया आगासगया चेदि । तत्थ जलगया दो-कोडि-णव-लक्ख-एऊण-णवुइ-सहस्स-वे-सदपदेहि २०९८९२०० जलगमण-जलत्थंभण-कारण-मंत-तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि । थलगया णाम तेत्तिएहि चेव पदेहि २०९८९२०० भूमि-गमण-कारण-मंत-तंत-तवच्छरणाणि वत्थु-विजं भूमि-संबंधमण्णं पि सुहासुह-कारणं वण्णेदि । मायागया तेत्तिएहि चेय पदेहि २०९८९२०० इंद-जालं वण्णेदि । रूवगया तेत्तिएहि चेय पदेहि २०९८९२०० सीह-हय-हरिणादि-रूवायारेण परिणमण-हेदु-मंत-तंत-तवच्छरणाणि चित्त-कह-लेप्प-लेणकम्मादि-लक्खणं च वण्णेदि । आयासगया णाम तेत्तिएहि चेय पदेहि २०९८९२०० आगास-गमग-णिमित्त मंत-तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि । चूलिया-सव्व-पद-समासो दस
पदों द्वारा उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आदिका वर्णन करता है।
___ जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगताके भेदसे चूलिका पांच प्रकारकी है। उनमेंसे, जलगता चूलिका दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दोसौ पदोंद्वारा जलमें गमन और जलस्तम्भनके कारणभत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चर्यारूप अतिशय वर्णन करती है। स्थलगता चूलिका उतने ही २०९८९२०० पदोंद्वारा पृथिवीके भीतर गमन करनेके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र, और तपश्चरणरूप आश्चर्य आदिका तथा वास्तुविद्या और भूमिसंबन्धी दूसरे शुभ-अशुभ कारणोंका वर्णन करती है। मायागता चूलिका उतने ही २०९८९२०० पदोंद्वारा (मायारूप) इन्द्रजाल आदिके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणका वर्णन करती है। रूपगता चूलिका उतने ही २०९८९२०० पदोंद्वारा सिंह, घोड़ा और हरिणादिके स्वरूपके आकाररूपसे परिणमन करनेके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणका तथा चित्रकर्म, काष्ठकर्म, लेप्यकर्म और लेनकर्म आदिके लक्षणका वर्णन करती है। आकाशगता चूलिका उतने ही २०९,८९२०० पदोंद्वारा आकाशमें गमन करनेके कारणभूत मन्त्र, तन्त्र और तपश्चरणका वर्णन करती है। इन पांचों ही चूलिकाओंके पदोंका जोड़ दश करोड़ उनचास लाख
१ जलगता चूलिका जलस्तम्भनजलगमनाभिस्तम्भामिभक्षणाग्न्यासनामिप्रवेशनादिकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादीन् वर्णयति । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६२. २ स्थलगता चूलिका मेरुकुलशैलभूम्यादिषु प्रवेशनशीघ्रगमनादिकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादीन् वर्णयति ।
गो.जी., जी.प्र., टी. ३६२. ३ मायागता चूलिका मायारूपेन्द्रजालविक्रियाकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादीन् वर्णयति ।
गो. जी., जी. प्र., टी. ३६२. ४ रूपगता चूलिका सिंहकरितुरगरुरुनरतरुहरिणशशकवृषभव्याघ्रादिरूपपरावर्तनकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादीन् चित्रकाष्ठलेप्योत्खननादिलक्षणधातुवादरसवादखन्यावादार्दीश्च वर्णयति । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६२.
५ आकाशगता चूलिका आकाशगमनकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादीन वर्णयति । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org