Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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११८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, २. दिषु तत् स्थापनासत्यम् । साधनादीनौपशमिकादीन् भावान् प्रतीत्य यद्वचस्तत्प्रतीत्यसत्यम् । यल्लोके संवृत्याश्रितं वचस्तत्संवृतिसत्यम्, यथा पृथिव्याघनेककारणत्वेऽपि सति पङ्के जातं पङ्कजमित्यादि। धूपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्ममकरहंससर्वतोभद्र क्रौञ्चव्यहादिषु इतरेतरद्रव्याणां' यथाविभागविधिसन्निवेशाविर्भावकं यद्वचस्तत्संयोजनासत्यम् । द्वात्रिंशजनपदेष्वार्यानार्यभेदेषु धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रापकं यद्वचस्तजनपदसत्यम् । ग्रामनगरराजगणपाखण्डजातिकुलादिधर्माणां व्यपदेष्ट यद्वचस्तद्देशसत्यम् । छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासंयतस्य वा स्वगुणपरिपालनार्थ प्रासुकमिदमप्रासुकमिदमित्यादि यद्वचस्तद्भावसत्यम् । प्रतिनियतपट्तयद्रव्यपर्यायाणामागमगम्यानां याथात्म्याविष्करणं यद्वचस्तत्समयसत्यम् ।
आदपवाद सोलसण्हं वत्थूगं १६ वीसुत्तर-ति-सय-पाहुडाणं ३२० छब्बीस-कोडिपदेहि २६००००००० आई वण्णेदि वेदे ति वा विण्हु त्ति वा भोत्ते त्ति वा बुद्धे त्ति वा इञ्चादि-सरूवेण । उत्तं च
जीवो कत्ता य बत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो । वेदो विश्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो ॥ ८१ ॥
कहते है । सादि और अनादिरूप औपशमिक आदि भावोंकी अपेक्षा जो वचन बोला जाता है उसे प्रतीत्यसत्य कहते हैं। लोकमें जो वचन संवृति अर्थात् कल्पनाके आश्रित बोले जाते हैं उन्हें संवृतिसत्य कहते हैं। जैसे, पृथिवी आदि अनेक कारणे के रहने पर भी जो पंक अर्थात् कीचड़में उत्पन्न होता है उसे पंकज कहते हैं इत्यादि । धूपके सुगन्धी चूर्णके अनुलेपन और प्रघर्षणके समय, अथवा पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और क्रौंच आदिरूप व्यूहरचनाके समय सचेतन अथवा अचेतन द्रव्योंके विभागानुसार विधिपूर्वक रचनाविशेषके प्रकाशक जो वचन हैं उन्हें संयोजनासत्य कहते हैं। आर्य और अनार्यके भेदसे बत्तीस देशों में धर्म, अर्थ, काम
और मोक्ष प्राप्त करानेवाले वचनको जनपदसत्य कहते हैं। ग्राम, नगर, राजा, गण, पाखण्ड, जाति और कुल आदिके धर्मोंके उपदेश करनेवाले जो वचन हैं उन्हें देशसत्य कहते हैं। छद्मस्थाका ज्ञान यद्यपि द्रव्यकी यथार्थताका निश्चय नहीं कर सकता है तो भी अपने गुण अर्थात् धर्मके पालन करनेके लिये यह प्रासुक है, यह अप्रासुक है इत्यादि रूपसे जो संयत और श्रावकके वचन हैं उन्हें भावसत्य कहते हैं। आगमगम्य प्रतिनियत छह प्रकारकी द्रव्य ओर उनकी पर्यायौंकी यथार्थताके प्रगट करनेवाले जो वचन हैं उन्हें समयसत्य कहते हैं।
आत्मप्रवादपूर्व सोलह वस्तुगत तीनसौ वीस प्राभृतोंके छव्वास करोड़ पदोंद्वारा जीव वेत्ता है, विष्णु है, भोक्ता है, बुद्ध है, इत्यादि रूपसे आत्माका वर्णन करता है। कहा भी है
जीव कर्ता है, वक्ता है, प्राणी है, भोक्ता है, पुद्गलरूप है, वेत्ता है, विष्णु है, स्वयंभू है,
१.बा सचेतनेतरद्रव्याणा' इति पाठः।त. रा. व. पृ. ५२. .
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