Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, २. ]
संत - परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तात्रयरणं
[ १२३
एत्थ किमुपायyoवादो, किमग्गेणियादो ? एवं पुच्छा सव्वेसिं । णो उप्पायपुव्वादो, एवं वारणा सव्वेसिं । अग्गेणियादो । तस्स अग्गेणियस्स पंचविहो उवकमो, आणुव्व णामं पमाणं वत्तव्यदा अत्याहियारो चेदि । आणुपुव्वी तिविहा, पुव्वाणुपुन्वी पच्छाणुपुत्री जत्थतत्थाणुपुन्त्री चेदि । एत्थ पुव्वाणुपुव्वीए गणिज्जमाणे विदियादो, पच्छा पुत्री गणिमाणे तेरसमादो, जत्थतत्थाणुपुच्चीए गणिजमाणे अग्गेणियादो । अंगाणमग्ग- पदं वण्णेदि ति अग्गेणियं गुगणामं । अक्खर - पद-संवाद-पडिवत्ति-अणियोगदारेहि संखेज्जमत्थदो अनंतं । वत्तव्वा ससमयवत्तन्वदा ।
अत्थाधियारो चोद्दसविहो। तं जहा, पुच्वंते अवरंते धुवे अद्भुवे चयणली अद्भुवमं पणिधिप्पे अट्ठे भोम्मावयादीए सव्व कप्पणिज्जाणे तीदे अणागय - काले सिज्झए बझए ति चोस वत्थूणि । एत्थ किं पुच्चत्तादो, किं अवरत्तादो ? एवं पुच्छा सव्वेसिं कायन्वा | णो पुव्वत्तादो णो अवरतादो, एवं वारणा सव्वेसिं कायव्वा । चयणलद्धीदो ।
इस जीवस्थान शास्त्रमें क्या उत्पादपूर्वसे प्रयोजन है, क्या अग्रायणीयपूर्व से प्रयोजन है ? इसतरह सबके विषयमें पृच्छा करनी चाहिये। यहां पर न तो उत्पाद पूर्वसे प्रयोजन है, और न दूसरे पूर्वोसे प्रयोजन है इसतरह सबका निषेध करके यहां पर अग्रायणीयपूर्वसे प्रयोजन है, इसतरहका उत्तर देना चाहिये ।
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उस अग्रायणीयपूर्वके पांच उपक्रम हैं, आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथातथानुपूर्वीके भेदसे आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है यहां पर पूर्वानुपूर्वी गिनती करने पर दूसरेसे, पश्चादानुपूर्वीसे गिनती करने पर तेरहवेंसे और यथातथानुपूर्वी गिनती करने पर अग्रायणीयपूर्वसे प्रयोजन है । अंगों के अग्र अर्थात् प्रधानभूत पदार्थों का वर्णन करनेवाला होनेके कारण ' अग्रायणीय ' यह गौण्यनाम है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगरूप द्वारोंकी अपेक्षा संख्यात और अर्थकी अपेक्षा अनन्तरूप है । इसमें स्वसमयका ही कथन किया गया है, इसलिये स्वसमयवक्तव्यता है ।
अग्रायणीयपूर्व अर्थाधिकार चौदह प्रकारके हैं। वे इसप्रकार हैं, पूर्वान्त अपरान्त ध्रुव, अध्रुव, चयनलब्धि, अर्धोपम, प्रणधिकल्प, अर्थ, भौम, व्रतादिक, सर्वार्थ, कल्पनिर्याण, अतीतकाल में सिद्ध और बद्ध, अनागतकालमें सिद्ध और बद्ध । इनमेंसे यहां पर क्या पूर्वान्तसे प्रयोजन है, क्या अपरान्त से प्रयोजन है? इसतरह सबके विषय में पृच्छा करनी चाहिये। यहां पर पूर्वान्तसे प्रयोजन नहीं, अपरान्त से प्रयोजन नहीं, इत्यादि रूपसे सबका निषेध कर देना चाहिये | किन्तु चयनलब्धिसे यहां पर प्रयोजन है इसप्रकार उत्तर देना चाहिये । चयनलब्धिका
१ पूर्वान्तं परान्तं ध्रुवमभुवच्यवनलन्धिनामानि । अभुवं सप्रणिधिं चाप्यर्थ भौमायायं ( १ ) च ॥ सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानमतीतं त्वनागतं कालम् । सिद्धिमुपाध्यं च तथा चतुर्दश वस्तूनि द्वितीयस्य ॥ द. भ. पु. ८- ९०
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