Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, २.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं
[११९ सत्ता जंतू य माणी य माई जोगी य संकडो।
असंकडो' य खेत्तण्ह अंतरप्पा तहेव य॥ ८२ ॥ एदेसिमत्थो वुच्चदे। तं जहा, जीवदि जीविस्सदि पुव्वं जीविदो त्ति जीवो। सुहमसुहं करेदि त्ति कत्ता। सच्चमसचं संतमसंतं वददीदि वत्ता । पाणा एयस्स संति त्ति पाणी । अमर-णर-तिरिय-णारय-भेएण चउबिहे संसारे कुसलमकुसलं भुजंदि त्ति भोत्ता। छबिह-संठाणं बहुविह-देहेहि पूरदि गलदि त्ति पोग्गलो । सुख-दुक्खं वेदेदि त्ति वेदो, वेत्ति जानातीति वा वेद ।। उपात्तदेहं व्यामोतीति विष्णु । स्वयमेव भूतवानिति शरीरी है, मानव है, सक्ता है, जन्तु है, मानी है, मायावी है, योगसहित है, संकुट है, भसंकुट है, क्षेत्र है और अन्तरात्मा है ॥ ८१.८२॥
___ आगे इन्हीं दोनों गाथाओंका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है, जीता है, जीवित रहेगा और पहले जीवित था, इसलिये जीव है। शुभ और अशुभ कार्यको करता है, इसलिये कर्ता है । सत्य-असत्य और योग्य-अयोग्य वचन बोलता है, इसलिये वक्ता है । इसके दश प्राण पाये
जाते हैं इसलिये प्राणी है। देव, मनुष्य तिर्यंच और नारकीके भेदसे चार प्रकारके संसारमें • पुण्य और पापका भोग करता है, इसलिये भोक्ता है। नानाप्रकारके शरीरोंके द्वारा छह प्रकारके
संस्थानको पूर्ण करता है और गलाता है, इसलिये पुद्गल है। सुख और दुखका वेदन करता है, इसलिये वेद है। अथवा, जानता है, इसलिये वेद है। प्राप्त हुए शरीरको व्याप्त करता है,
१ वेदो' स्थाने । वेदी', 'संकडो' स्थाने 'संकुडो', ' असंकडो' स्थाने ' असंकुडो' पाठः ।
गो. जी., जी. प्र., टी. ३६६. २ गाथाद्वथान्तर्गताः ' च ' शब्दाः उक्तानुक्तसमुच्चयार्थाः वेदितव्याः । ततः कारणात् व्यवहाराश्रयेण कर्मनोकर्मरूपमूर्तद्रव्यादिसम्बन्धेन मूर्तः, निश्चयनयाश्रयेणामूर्तः इत्यादय आमधर्माः समुच्चीयन्ते । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६६.
३ जीवति व्यवहारनयेन दशप्राणान् निश्चयनयेन केवलज्ञानदर्शनसम्यक्त्वरूपचिप्राणांश्च धारयति जीविष्यति जावितपूर्वश्चेति जीवः । गो. जी, जी. प्र., टी. ३६६.
४ व्यवहारनयेन शुभाशुभं कर्म, निश्चयेन चित्पर्यायांश्च करोतीति कर्ता। गो. जी., जी. प्र,टी. ३६६. ५ व्यवहारनयेन सत्यमसत्यं च वक्तीति वक्ता, निश्चयेनावक्ता । गो. जी., जी.प्र., टी. ३६६. ६ नयद्वयोक्तप्राणाः सत्यस्येति प्राणी | गो. जी., जी.प्र., टी ३६६.
७ व्यवहारेण शुभाशुभकर्मफलं, निश्चयेन स्वस्वरूपं च भुक्ते अनुभवतीति भोक्ता । गो. जी , जी. प्र., टी. ३६६.
८ व्यवहारेण कर्मनोकर्मपुदलान् पूरयति गालयति चेति पुदलः, निश्चयेनापुद्गलः। गो.जी.,जी.प्र.,टी. ३६६. ९ नयद्वयन लोकालोकगतं त्रिकालगोचरं सर्व वेत्ति जानातीति वेदः । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६६.
१० व्यवहारेण स्वोपात्तदेहं समुद्धाते सर्वलोकं, निश्चयेन ज्ञानेन सर्व वेवेष्ठि व्याप्नोतीति विष्णुः । गो. जी , जी. प्र., टी. ३६६.
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