Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १, २.
ववहारो साहूणं जोग्गमाचरणं अकप्प-सेवणाए पायच्छित्तं च वण्णे । कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदिजं च ण कप्पदि तं सव्वं वण्णेदि । महाकप्पियं काल - संघडणाणि अस्सिऊण साहु- पाओग्ग- दव्त्र- खेत्तादिणं वण्णणं कुणइ । पुंडरीयं चव्विह- देवे सुववादकारण- अणुाणाणि वणेइ । महापुंडरीयं सयलिंद - यडिदे उपपत्ति-कारणं वण्णे । णिसि - हियं बहुविह- पायच्छित्त-विहाण वण्णणं कुणइ ।
करता है । तथा वह मुनियोंकी आचारविधि और गोचरविधिका भी वर्णन करता है। जिसमें अनेक प्रकार के उत्तर पढ़नेको मिलते हैं उसे उत्तराध्ययन अर्थाधिकार कहते हैं। इसमें चार प्रकारके उपसर्गों को कैसे सहन करना चाहिये? बाईस प्रकार के परषिहोंके सहन करने की विधि क्या है ? इत्यादि प्रश्नोंके उत्तरोंका वर्णन किया गया है । कल्प्यव्यवहार साधुओंके योग्य आचरणका और अयोग्य आचरणके होने पर प्रायश्चित्तविधिका वर्णन करता है । कल्प्य नाम योग्यका है और व्यवहार नाम आचारका है । कल्प्या कल्प्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा मुनियोंके लिये यह योग्य है और यह अयोग्य है, इसतरह इन सबका वर्णन करता है । महाकल्प्य काल और संहननका आश्रयकर साधुओंके योग्य द्रव्य और क्षेत्रादिकका वर्णन करता है । [ इसमें, उत्कृष्ट संहननादि - विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रय लेकर प्रवृत्ति करनेवाले जिनकल्पी साधुओंके योग्य त्रिकालयोग आदि अनुष्ठानका और स्थविरकल्पी साधुओंकी दीक्षा, शिक्षा, गणपोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना आदिका विशेष वर्णन है ।] पुण्डरीक भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पवासी इन चार प्रकारके देवोंमें उत्पत्तिके कारणरूप दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यग्दर्शन, और संयम आदि अनुष्ठानों का वर्णन करता है । महापुण्डरीक समस्त इन्द्र और प्रतीन्द्रोंमें उत्पत्तिके कारणरूप तपोविशेष आदि आचरणका वर्णन करता है । प्रमादजन्य दोषोंके निराकरण करने को निषिद्धि कहते हैं, और इस निषिद्धि अर्थात् बहुत प्रकारके प्रायश्चित्तके प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको निषिद्धिका कहते हैं ।
सहनविधानं तत्फलं एवं प्रश्ने एवमुत्तरमित्युत्तर विधानं च वर्णयति । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६७. कम उत्तरेण पयं आयारस्सेव उवरिमाइं तु । तम्हा उ उत्तरा खलु अज्झयणा हांति णायव्वा ॥ अभि. रा. को. ( उत्तरज्झयण ) कानि तान्युत्तरपदानीति चेदुच्यते छत्ती उत्तरज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा -१ विणयसुयं २ परीसही ३ चाउरंगिचं ४ असंखयं ५ अकाममरणिज्जं ६ पुरिसविज्जा ७ उरग्भिनं ८ काविलियं ९ नमिपव्वज्जा १० दुमपत्तयं ११ बहुसुयपूजा १२ हरिए सिज्जं १३ चित्तसंभूयं १४ उयारिजं १५ सभिक्खुगं १६ समाहिट्ठाणाई १७ पावसमणिज्ज १८ संजइज्जं १९ मियाचारिया २० अणादपव्वज्जा २१ समुद्दपालिज्जं २२ रहनेमिज्जं २३ गोयमकेसिज्जं २४ समितीओ २५ जन्नतिञ्ज २६ सामायारी २७ खलंकिज्जं २८ मोक्खमग्गगई २९ अप्पमाओ ३० तवोमग्गो ३१ चरणविही ३२ पमायट्टाणाई ३६ कम्मपयडी ३४ लेसज्झयणं ३५ अणगारमग्गे ३६ जीवाजीव विभक्ती य । सम. सू. ३६.
१ निषेधनं प्रमाददोषनिराकरणं निषिद्धिः संज्ञायां कप्रत्यये निषिद्धिका । तच्च प्रमाददोषविशुद्धयर्थं बहुप्रकारं प्रायश्चित्तं वर्णयति । गो. जी., जी. प्र., टी. ३६८.
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