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१, १, २, ]
संत- परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तात्रयरणं
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चेदि चव्हाओ कहाओ वण्णेदि । तत्थ अक्खेवणी णाम छदव्य-गव-पयत्थाणं सरूवं दिगंतर - समयांतर-निराकरणं सुद्धिं करेंती परूवेदि । विक्खेवणी णाम पर - समएण स-समयं दूती पच्छा दिगंतर - सुद्धिं करेंती स-समयं थावंती छदव्व णव- पयत्थे रूवेदि । संवेणी णाम पुण्ण- फल-संकहा । काणि पुण्ण- फलाणि ? तित्थयर - गणहर - रिसि-चक्कवट्टि - बलदेव - वासुदेव- सुर- विज्जाहरिद्धीओ । णिव्वेयणी णाम पाव - फल-संकहा । काणि पावफलाणि ? णिरय- तिरिय - कुमाणुस जोणीसु जाइ-जरा-मरण - वाहि-वेयणा-दालिदादीणि । संसार - सरीर - भोगे वेरगुप्पाइणी णिव्वेयणी णाम । उक्तं च
जो नाना प्रकारकी एकान्त दृष्टियों का और दूसरे समयों का निराकरणपूर्वक शुद्धि करके छह द्रव्य और नौ प्रकारके पदार्थोंका प्ररूपण करती है उसे आक्षेपणी कथा कहते हैं । जिसमें पहले परसमयके द्वारा स्वसमयमें दोष बतलाये जाते हैं । अनन्तर परसमयकी आधारभूत अनेक एकान्त दृष्टियों का शोधन करके स्वसमयकी स्थापना की जाती है और छह द्रव्य नौ पदार्थोंका प्ररूपण किया जाता है उसे विक्षेपणी कथा कहते हैं । पुण्यके फलका वर्णन करनेवाली कथाको संवेदनी कथा कहते हैं ।
शंका - पुण्यके फल कौनसे हैं ?
समाधान - तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधक ऋद्धियां पुण्यके फल हैं ।
पापके फलका वर्णन करनेवाली कथाको निवेदनी कथा कहते हैं ।
शंका - पापके फल कौनसे हैं ?
समाधान - नरक, तिर्यंच और कुमानुषकी योनियोंमें जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र आदिकी प्राप्ति पापके फल हैं ।
अथवा, संसार, शरीर और भोगों में वैराग्यको उत्पन्न करनेवाली कथाको निवेदनी कथा कहते हैं । कहा भी है
१ प्रश्नस्य दूतवाक्यनष्टमुष्टिचिंतादिरूपस्यार्थत्रि कालगोचरो धनधान्यादिलाभालाभ सुखदुःखजीवितमरणजयपराजयादिरूपो व्याक्रियते व्याख्यायते यस्मिंस्तत्प्रश्नव्याकरणम् । अथवा शिष्यप्रश्नानुरूपतया अवक्षेपणी विक्षेपणी संवेजनी निर्वेजनी चेति कथा चतुविधा व्याक्रियन्ते यस्मिंस्तत्प्रश्नव्याकरणं नाम । गो. जी., जी. प्र., टी. ३५७.
२ प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोग द्रव्यानुयोगरूपपरमागमपदार्थानां तीर्थंकरादिवृत्तान्तलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्म पंचास्तिकायादीनां परमताशंकारहितं कथनमाक्षेपणी कथा । गो. जी., जी. प्र., टी. ३५७.
३ प्रमाणनयात्मकयुक्तियुक्त हेतुत्वादिवलेन सर्वर्थकान्तादिपरसम यार्थनिराकरणरूपा विक्षेपणी कथा । गो. जी., जी. प्र., टी. ३५७.
४ रत्नत्रयात्मकधर्मानुष्ठान फलभूततीर्थकरायैश्वर्यप्रभावतेजोवीर्यज्ञानसुखादिवर्णनारूपा संवेजनी कथा | गो. जी., जी. प्र., टी. ३५७.
५ संसारशरीरभोगरागजनित दुष्कर्म फलनारकादिदुःख दुष्कुलविरूपांगदारिद्यापमानदुःखादिवर्णनाद्वारेण वैराग्य
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