Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, २.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे सुत्तावयरणं
[१०७ रइ-विरदस्स तव-सील-णियम-जुत्तस्स पच्छा विक्खेवणी कहा कहेयया । एसा अकहा वि पण्णवयंतस्स परूवयंतस्स तदा कहा होदि । तम्हा पुरिसंतरं पप्प समणेण कहा कहेयव्या। पण्हादो हद-ण?-मुहि-चिंता-लाहालाह-सुह-दुक्ख-जीविय-मरण-जय-पराजय-णाम-दव्वायुसंखं च परूवेदि । विवागसुत्तं णाम अंगं एग-कोडि-चउरासीदि-लक्ख-पदेहि १८४००००० पुण्ण-पाव-कम्माणं विवायं वण्णेदि । एक्कारसंगाणं सव्व-पद-समासो चत्तारि कोडीओ पण्णारह लक्खा-वे-सहस्सं च ४१५०२००० । दिद्विवादो' णाम अंगं बारसमं । तस्य दृष्टिवादस्य स्वरूपं निरूप्यते । कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिश्मश्रुमांद्धपिक-रोमश-हारित-मुण्ड-अश्वलायनादीनां क्रियावाद-दृष्टीनामशीतिशतम् , मरीचि
रस हड्डीसे संसक्त होकर ही शरीरमें रहता है, उसीतरह जो जिनशासनमें अनुरक्त है, जिनवचनमें जिसको किसीप्रकारकी विचिकित्सा नहीं रही है, जो भोग और रतिसे विरक्त है और जो तप, शील और नियमसे युक्त है ऐसे पुरुषको ही पश्चात् विक्षेपणी कथाका उपदेश देना चाहिये । प्ररूपण करके उत्तमरूपसे ज्ञान करानेवालेके लिये यह अकथा भी तब कथारूप हो जाती है। इसलिये योग्य पुरुषको प्राप्त करके ही साधुको कथाका उपदेश देना चाहिये । यह प्रश्नव्याकरण नामका अंग प्रश्नके अनुसार हत, नष्ट, मुष्टि, चिंता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु और संख्याका भी प्ररूपण करता है । विपाकसूत्र नामका अंग एक करोड़ चौरासी लाख पदोंके द्वारा पुण्य और पापरूप कौके फलोंका वर्णन करता है। ग्यारह अंगोंके कुल पदोंका जोड़ चार करोड़ पन्द्रह लाख दो हजार पद है। दृष्टिवाद नामका बारहवां अंग है। आगे उसके स्वरूपका निरूपण करते हैं। दृष्टिवाद नामके अंगमें कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिश्मथु, मांधपिक, रोमश, हारित, मुण्ड और अश्वलायन आदि क्रियावादियोंके एकसौ अस्सी मतोंका, मरीचि, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति,
अस्थीनि च कीकसानि मिज्जा च तन्मध्यवर्ती धातुरस्थिमिज्जास्ताः प्रेमानुरागेण सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा । अथवाऽस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रता येते अद्विमिंजपेम्माणुरागरचा। मग. २. ५. १०६ ( टीका)
१परसमओ उभयं वा सम्मद्दिहिस्स ससमओ जेणे ॥ तो सबझयणाई ससमयवत्तव्यनिययाई॥ मिश्छत्तमयसमूहं सम्मत्तं जं च तदुवगारम्मि | वट्टइ परसिद्धंतो तो तस्स तओ ससिद्धंतो ॥ वि. भा, ९५६, ९५७.
२ शुभाशुभकर्मणां तीवमंदमध्यमविकल्पशक्तिरूपानुभागस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावाथयफलदानपरिणतिरूपः उदयो विपाकः, तं सूत्रयति वर्णयतीति विपाकसूत्रम् | गो. जी., जी. प्र., टी. ३५७. विवागसुए णं सुक्कडदुकडाणं कम्माणं फलविवागे आपविजंति xx। सम. सू. १४६.
३ दृष्टीनां त्रिषट्यत्तरत्रिशतसंख्यानां मिथ्यादर्शनानां वादोऽनुवादः, तन्निराकरणं च यस्मिन् क्रियते तदृष्टिवाद नाम । गो. जी., जी प्र., टी. ३६०. दिहिवाए गं सबभावपरूवणया आघविजंति । से समासओ पंचविहे,
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