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संत-परूवणाणुयोगदारे मंगलायरणं क्षुधादिपरीषह-रागद्वेषकपायेन्द्रियादिसकलदोषगोचरतिक्रान्तः योजनान्तरदूरसमीपस्थाष्टादशभाषा--सप्तहतशतकुभाषायुत-तिर्यग्देवमनुष्यभाषाकारन्यूनाधिक-भावातीतमधुरमनोहरगम्भीरविशदवागतिशयसम्पन्नः भवनवासिवाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पवासन्द्रि-विद्याधरचक्रवर्ति-बल-नारायण-राजाधिराज-महाराजाधमहामण्डलीकेन्द्राग्नि-वायु-भूति-सिंह-व्यालादि-देव-विद्याधर-मनुष्यर्पि-तिर्यगिन्द्रेभ्यः प्राप्तपूजातिशयो महावीरोऽर्थकर्ता। तत्थ खेत्त-विसिट्ठोत्थ-कत्ता परूविजदि
पंच-सेल-पुरे रम्मे विउले पवदुत्तमे । णाणा-दुम-समाइण्णे देव-दाणव-बंदिदे ।। ५२ ॥
महावीरेणत्यो कहिओ भविय-लोयस्स । अनोपयोगिनौ श्लोकोयुक्त ऐसे विशिष्ट शरीरको धारण करनेवाले, देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकारके उपसर्ग, क्षुधा आदि बावीस परीषह, राग, द्वेष, कषाय और इन्द्रिय-विषय आदि संपूर्ण दोषोंसे रहित, एक योजनके भीतर दूर अथवा समीप बैठे हुए अठारह महाभाषा और सातसौ लघुभाषाओंसे युक्त ऐसे तिर्यंच, देव और मनुष्योंकी भाषाके रूपमें परिणत होनेवाली तथा न्यूनता और अधिकतासे रहित, मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद ऐसी भाषाके अतिशयको प्राप्त, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पवासी देवोंके इन्द्रोंसे, विद्याधर, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, राजाधिराज, महाराज, अर्धमण्डलीक, महामण्डलकि, राजाओंसे, इन्द्र, अग्नि, वायु, भूति, सिंह, व्याल आदि देव तथा विद्याधर, मनुष्य, ऋषि और तिर्योंके इन्द्रोंसे पूजाके अतिशयको प्राप्त श्री महावीर तीर्थकर अर्थकर्ता समझना चाहिये। __ अब क्षेत्र विशिष्ट अर्थकर्ताका निरूपण करते हैं
पंचशैलपुरमें (पंचपहाड़ी अर्थात् पांच पर्वतोंसे शोभायमान राजगृह नगरके पास ) रमणीक, नानाप्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त, देव तथा दानवोंसे वन्दित और सर्व पर्वतों में उत्तम ऐसे विपुलाचल नामके पर्वतके ऊपर भगवान महावीरने भव्य-जीवोंको उपदेश दिया अर्थात् दिव्यभ्वानिके द्वारा भावश्रुत प्रगद किया ॥५२॥
इसविषयमें दो उपयोगी म्लोक हैं
१ मोयणपमाणसंठिदतिरियामरमणुवनिवहपडिबोहो । मिदमधुरंगभीरतरा विसदविसयसयलमासाहि ॥ अहरसमहाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा । अक्खरअणक्खरप्पयसपणीजीवाण सयलभासाओ॥ एदासिं भासाणं तालुत्रदंतोट्टकंठवावारं । परिहरिय एककालं भबजणाणंदकरभासो॥ भावणवेंतरजोइसियकप्पवासेहिं केसवबलेहिं । विजाहरेहिं चक्किप्पमुहेहि णरेहिं तिरिएहि ॥ एदेहि अण्णेहिं विरचिदचरणारविंदजुगपूजो । दिवसयलट्ठसारो महवीरो भत्थकत्तारो ॥ ति. प. १, ६०-६४.
२ जयधवलायां गाथेयं । सिद्धचारणसेविवे ' इति चतुर्थचरणपाठभेदेनोपलभ्यते । सुरखेयरमणहरणे गुणणामे
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