Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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८०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, १, १. गंथावदारे णामं उच्चदि त्ति ? न, पूर्वोद्दिष्टस्य नाम्नोऽनेन पदान्वेषणात् ।
__ पमाणं पंचविहं दव्व-खेत्त-काल-भाव-णय-प्पमाण-भेदेहि । तत्थ दव्व-पमाणं संखेजमसंखेजममतयं चेदि । खेत्त-पमाणं एय-पदेसादि । काल-पमाणं समयावलियादि। भाव-पमाणं पंचविहं, आभिणिबोहियणाणं सुदणाणं ओहिणाणं मणपजवणाणं केवलणाणं चेदि । णय-प्पमाणं सत्तविहं, णेगम-संगह-ववहारुज्जुसुद-सह-समभिरूढ-एवंभूद-भेदेहि । अहवा णय-प्पमाणमणेयविहं
जावदिया वयण-वहा तावदिया चेव होंति णय-वादा ।
जावदिया णय-वादा तावदिया चेव पर-समया ॥६७ ॥ इदि वयणादो। कथं नयानां प्रामाण्यं ? न, प्रमाणकार्याणां नयानामुपचारतः प्रामाण्याविरोधात् ।
व्याख्यान कर ही आये हैं, फिर यहां पर ग्रन्थके प्रारम्भमें नामपदका व्याख्यान किसलिये किया गया है?
समाधान-ऐसा नहीं, क्योंकि, पूर्वमें कहे गये नामका दशप्रकारके नामपदों से किसमें अन्तर्भाव होता है इसका इस कथनके द्वारा ही अन्वेषण किया है।
. द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण, भावप्रमाण और नयप्रमाणके भेदसे प्रमाणके पांच भेद हैं। उनमें, संख्यात असंख्यात और अनंत यह द्रव्यप्रमाण है। एक प्रदेश आदि क्षेत्रप्रमाण है। एक समय, एक आवली आदि कालप्रमाण है। आभिनिबोधिक (मति) शान, श्रुतवान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानके भेदसे भावप्रमाण पांच प्रकारका है। नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूतनयके भेदसे नयप्रमाण सात प्रकारका है। अथवा नयप्रमाण निम्न वचनके अनुसार अनेक प्रकारका भी समझना चाहिये।
जितने भी वचन-मार्ग हैं, उतने ही नयवाद, अर्थात् नयके भेद हैं। और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय हैं ।। ६७॥
शंका-नयों में प्रमाणता कैसे संभव है, अर्थात् उनमें प्रमाणता कैसे आ सकती है ?
समाधान-- नहीं, क्योंकि, नय प्रमाणके कार्य हैं, इसलिये उपचारसे नयोंमें प्रमाणताके मान लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
विशेषार्थ-शंकाकारका अभिप्राय यह है कि जब नय वस्तुके एक अंशमात्रको ग्रहण करता है सर्वांशरूपसे वस्तुको नहीं जानता है तब उसे प्रमाण कैसे माना जाय । इसका समाधान इसप्रकार किया गया है कि, यद्यपि केवल एक नय नय है प्रमाण नहीं है। किन्तु उनमें दूसरे नयोंकी अपेक्षा रहनेसे वे प्रमाणका कार्य करते हैं, इसलिये उपचारसे उनमें प्रमाणता आ जाती है। .........................
१ गो. क. ८९४, स. त. १,४७.
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