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छक्खंडागमे जीवहाणं
[१, १, १.
दाणे लाभे भोगे परिभोगे वीरिए य सम्मत्ते । णव केवल-लद्धीओ दसण-णाणं चरिते य ॥ ५८ ॥ खीणे दंसण-मोहे चरित्त-मोहे चउक्क-घाइ-तिए । सम्मत्त विरिय-णाणं खझ्याइं होंति केवलिणो' ॥ ५९ ॥ उप्पण्णम्हि अणते णहम्मि य छादुमथिए णाणे ।
णव-विह-पयत्थ-गब्भा दिव्वझुणी कहेइ सुत्तटुं ॥ ६॥ एवंविधो महावीरोऽर्थकर्ता । तेण महावीरेण केवलणाणिणा कहिदत्यो तम्हि चेव काले तत्थेव खेत्ते खयोवसम-जणिद-चउरमल-बुद्धि-संपण्णेण बम्हणेण गोदम-गोत्तेण सयलदुस्मुदि-पारएण जीवाजीव-विसय-संदेह-विणासणट्ठमुवगय-वडमाण-पाद-मूलेण इंदभूदिणावहारिदों । उत्तं च
दान, लाभ, भोग, परिभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, शान और चारित्र ये नव केवललब्धियां समझना चाहिये ॥ ५८॥
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयके क्षय हो जाने पर तथा मोहनीय कर्मके क्षय हो जानेके बाद चार घातिया कौमेंसे शेष तीन घतिया कर्मोंके क्षय हो जाने पर केवली जिनके सम्यक्त्व, वीर्य और शान ये क्षायिक भाव प्रगट होते हैं ॥ ५९ ॥
क्षायोपशमिक शानके नष्ट हो जाने पर और अनन्तरूप केवलज्ञानके उत्पन्न हो जाने पर नौ प्रकारके पदार्थोसे गर्भित दिव्यध्वनि सूत्रार्थका प्रतिपादन करती है। अर्थात् केवलज्ञान हो जाने पर भगवान्की दिव्यध्वनि खिरती है ॥ ६०॥
इसप्रकार भगवान महावीर अर्थ-कर्ता हैं। इसप्रकार केवलझानसे विभूषित उन भगवान् महावीरके द्वारा कहे गये अर्थको, उसी कालमें और उसी क्षेत्रमें क्षयोपशमविशेषसे उत्पन्न हुए चार प्रकारके निर्मल ज्ञानसे युक्त, वर्णसे ब्राह्मण, गोतमगोत्री, संपूर्ण दुःश्रुतिमें पारंगत, और जीव-अजीवविषयक संदेहको दूर करनेके लिये श्री वर्द्धमानके पादमूलमें उपस्थित हुए ऐसे इन्द्रभूतिने अवधारण किया। कहा भी है
१ खीणे दंसणमोहे चरित्तमोहे तहेव घाइतिए। सम्मत्तणाण विरिया खइया ते हॉति केवलिणो ॥ जयध. अ. पृ. ८. दंसणमोहे णटे घादित्तिदए चरित्तमोहम्मि । सम्मत्तणाणदंसणवीरियचरियाइ होंति खइयाई ॥ ति. प. १,७३,
२ जादे अणतणाणे णटे छदुमट्ठिदम्मि णाणम्मि । णवविहपदत्थसारा दिव्यज्झुणी कहइ सुत्तत्थं ॥ अण्णेहिं अणंतेहिं गुणेहिं जुत्तो विसुद्धचारित्तो । भवभयभंजणदच्छो महवीरो अत्थकत्तारो ॥ ति. प १, ७४-७५.
३ महवीरभासियत्थो तस्सि खेत्तम्मि तत्थकाले य ! खायोवसमविवडिदचउरमलमईहिं पुण्णेणं ॥ लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविहविसएसु । संदेहणासणथं उवगदसिरिवीरचलणमूलेण ॥ विमले गोदमगोत्ते जादेणं इंदभूदिणामेणं | चउवेदपारगेणं सिस्सेण विसुद्धसीलेण ॥ ति. प. १, ७६-७८.
४ मिथ्यादृष्टयवस्थायामिन्द्रभूतिः सकलवेदवेदाङ्गपारगः सन्नपि जीवास्तित्वविषये संदिग्ध एवासीत् । इन्द्र
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