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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, १, १.
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वण्णा सव्व-लक्खण- संपूण्णा अप्पणो कय-तिप्पयाहिणा पाएसु णिसुढियं-पदियंगा बे वसहा सुमिणंतरेण धरसेण-भडारएण दिट्ठा । एवंविह-सुमिणं दट्ठूण तुट्ठेण धरसेणाइरिएण जयउ सुय देवदा' त्ति संलवियं । तदिवसे चेय ते दो वि जणा संपत्ता धरसेणाइरियं । तो धरण - भवद किदियम्मं काऊण दोण्णि दिवसे वोलाविय तदिय- दिवसे विणण धरसेण-भडारओ तेहिं विण्णत्तो ' अणेण कज्जेणम्हा दो वि जणा तुम्हं पादमूलमुगवया ति । ' मुहु भदं ' ति भणिऊण धरसेण-भडारएण दो वि आसासिदा । तदो चिंतिदं
भयवदा
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सेलघण-भग्गघड-अहि-चालणि-महिसाऽवि - जाहय - सुरहि । मट्टिय-मसय-समाणं वक्खाणइ जो सुदं मोहा ॥ ६२ ॥ द- गाव - पडिबद्ध विसयामिस-विस सेण घुम्मंतो । सो भट्ट बोहि लाहो भमइ चिरं भवन्वणे मूढो ॥ ६३ ॥
सफेद वर्णवाले हैं, जो समस्त लक्षणोंसे परिपूर्ण हैं, जिन्होंने आचार्य (धरसेन) की तीन प्रदक्षिणा दी हैं और जिनके अंग नम्रित होकर आचार्यके चरणों में पड़ गये है ऐसे दो बैलोंको धरसेन भट्टारकने रात्रिके पिछले भाग में स्वप्न में देखा । इसप्रकारके स्वप्नको देखकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य 'श्रुतदेवता जयवन्त हो ' ऐसा वाक्य उच्चारण किया ।
उसी दिन दक्षिणापथसे भेजे हुए वे दोनों साधु धरसेनाचार्यको प्राप्त हुए। उसके बाद धरसेनाचार्यकी पादवन्दना आदि कृतिकर्म करके और दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनोंने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि ' इस कार्यसे हम दोनों आपके पादमूलको प्राप्त हुए हैं'। उन दोनों साधुओंके इसप्रकार निवेदन करने पर 'अच्छा है, कल्याण हो' इसप्रकार कहकर धरसेन भट्टारकने उन दोनों साधुओं को आश्वासन दिया । इसके बाद भगवान् धरसेन ने विचार किया कि
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शैलघन, भग्नघट, अहि (सर्प) चालनी, महिष, अवि (मेढ़ा), जाहक (जॉक) शुक, माटी और मशक के समान श्रोताओंको जो मोहसे श्रुतका व्याख्यान करता है । वह मूढ़ रसगावके आधीन होकर विषयोंकी लोलुपतारूपी विषके वशसे मूच्छित हो, बोधि अर्थात् Reaseat प्राप्तिसे भ्रष्ट होकर भव-वनमें चिरकालतक परिभ्रमण करता है ॥ ६२, ६३ ॥
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१ • भाराक्रान्ते नमेर्णिसुदः ' है. ८, ४, १५८.
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२ आगमनदिने च तयोः पुरैव धरसेनसूरिरपि रात्रौ । निजपादयोः पतन्तौ धवलवृषावैक्षत स्वप्ने || तत्स्वप्रेक्षणमात्राजयतु श्रीदेवतेति समुपलपन् । उदतिप्रदतः प्रातः समागतावैक्षत मुनी द्रौ ॥ इन्द्र श्रुता. ११२, ११३.
३ ईसरिय रूव सिरि-जस धम्म- पयत्तामया भगाभिक्खा । ते तेसिमसामण्णा संति जओ तेण भगवंते ॥ वि. भा. १०५३. ४ सेलघण कुङग चालिणि परिपूणग हंसमहिसमेसे य । मसग जलूग विराली जाग गो मेरि आमीरी ॥ ब्रु. क. सू. ३३४., आ. नि. १३९.
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