Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १.
संत- परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं
[ २५
संजम - विणास भएण उस्सास - गिरोह काऊण मुद- साहु- सरीरं कत्थ णिवददि १ ण ? कविता-द- देहस्स मंगलत्ताभावादो । मंगल- पाहुड - धारयस्स धरिद - महव्वयस्स चत्त-देहस्स अचत्त-देहस्स वा देहो कधममंगलं ? साहूणमजुत्तकारिस्स देहत्तादो अमंगलमिदि णवोत्तुं जुतं पुत्रं ति- रयणाहारतेण मंगल तमुवगयस्स पच्छा भूद-पुत्र-णाएण मंगल-भावं पsि विरोहाभावादो । तदो मंगल-भावेण कत्थ वि णिवदेयव्वमेदेण सरीरेणेति । ण चइदम्हि पददि चत्तस्स वि आहार - णिरोहेण पदिदस्स चइदत्तावत्तदो । तो क्खहिं एवं घेत्तव्वं ? कयली - घादेण मरण - कंखाए जीवियासाए जीविय - मरणासाहि विणा वापदि सरीरं इदं । जीवियासाए मरणासाए जीविय मरणासाहि विणा वाकयली
शंका - संयम के विनाशके भयसे श्वासोच्छ्वासका निरोध करके मरे हुए साधुके शरीरका त्यक्तके तीन भेदों में से किस भेद में अन्तर्भाव होता है ?
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समाधान - ऐसे शरीरका त्यक्तके किसी भी भेदमें अन्तर्भाव नहीं होता है, क्योंकि, इसप्रकारसे मृत शरीरको मंगलपना प्राप्त नहीं हो सकता ।
शंका – जो मंगल शास्त्रका धारक है अर्थात् ज्ञाता है, जिसने महावतोंको धारण किया है, चाहे उस साधुने समाधिसे शरीर छोड़ा हो अथवा नहीं छोड़ा हो, परंतु उसके शरीरको अमंगलपना कैसे प्राप्त हो सकता है ? यदि कहा जावे कि साधुओंमें अयोग्य कार्य करनेवाले साधुका शरीर होनेसे वह अमंगल है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, जो शरीर पहले रत्नत्रयका आधार होनेसे मंगलपनेको प्राप्त हो चुका है, उसमें पीछेसे भी भूतपूर्व न्यायकी अपेक्षा मंगलत्व के स्वीकार कर लेने में कोई विरोध नहीं आता है । इसलिये मंगलपनेकी अपेक्षा संयमके विनाशके भयसे श्वासोच्छ्रासके निरोधसे छोड़े हुए साधुके शरीरको त्यक्तके तीन भेदोंमेंसे किसी एक भेदमें ग्रहण करना ही चाहिये । इस शरीरका च्यावितमें तो ग्रहण हो नहीं सकता है, क्योंकि, यदि इसका च्यावितमें ग्रहण किया जावे, तो आहारके निरोधसे छूटे हुए त्यक्त शरीरका भी च्यावितमें ही अन्तर्भाव करना पड़ेगा ? तो ऐसे शरीरको किस भेदमें ग्रहण करना चाहिये ?
समाधान - मरणकी आशासे या जीवनकी आशा से अथवा जीवन और मरण इन दोनोंकी आशा के विना ही कदलीघात से छूटे हुए शरीरको च्यावित कहते हैं । जीवनकी आशासे, मरणकी आशासे अथवा जीवन और मरण इन दोनोंकी आशाके बिना ही कदली
१. तांणाउ वित्तिच्छेयं ऊसासनिरोहमादिणि कयाइं । अणहीयासे तेहिं वेयण साहूहि ओमम्मि ॥ पडिघातो वा विज्जू 'गिरिभित्ती कोणयाइ वा हुज्जा। संबद्ध हत्थपायादओ व वातेण होज्जाहि ॥ एएहिं कारणेहिं पंडियमरण तु कामसमथो । ऊसासगिद्धपङ्कं रज्जुग्गहणं च कुज्जाहि ॥ व्यव. सू. ५४६-५४८.
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