Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागर्म जीवाणं
[१, १, १. सिद्धान्ताध्ययनस्य । तत्र प्रत्यक्षहेतुर्द्विविधः साक्षात्प्रत्यक्षपरम्पराप्रत्यक्षभेदात् । तत्र साक्षात्प्रत्यक्षमज्ञानविनाशः सज्ज्ञानोत्पत्तिर्देवमनुष्यादिभिः सततमभ्यर्चनं प्रतिसमयमसंख्यातगुणश्रेण्या कर्मनिर्जरा च । कर्मणामसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न, अवधिमनःपर्ययज्ञानिनां सूत्रमधीयानानां तत्प्रत्यक्षतायाः समुपलम्भात् । तत्र परम्पराप्रत्यक्षं शिष्यप्रशिष्यादिभिः सततमभ्यर्चनम् । परोक्षं द्विविधम् , अभ्युदयनैःश्रेयसमिति । तत्राभ्युदयसुखं नाम सातादि-प्रशस्त-कर्म-तीव्रानुभागोदय-जनितेन्द्र-प्रतीन्द्रसामानिक-त्रायस्त्रिंशदादि-देव-चक्रवर्ति-बलदेव-नारायणार्धमण्डलीक-मण्डलीक-महामण्डलीक-राजाधिराज-महाराजाधिराज-परमेश्वरादि-दिव्य-मानुष्य-मुखम् ।
समाधान-यहां पर सिद्धान्तके अध्ययनके हेतुका कथन किया जाता है।
उन दोनों प्रकारके हेतुओंमेंसे प्रत्यक्ष हेतु दो प्रकारका है, साक्षात्प्रत्यक्ष हेतु और परंपरा-प्रत्यक्ष हेतु । उनमेंसे अज्ञानका विनाश सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्ति, देव, मनुष्यादिके द्वारा निरन्तर पूजाका होना और प्रत्येक समयमें असंख्यात-गुणित-श्रेणीरूपसे कौकी निर्जराका होना साक्षात्प्रत्यक्ष हेतु (फल) समझना शाहिये।
शंका-काँकी असंख्यात-गुणित-श्रेणीरूपसे निर्जरा होती है, यह किनके प्रत्यक्ष है ?
समाधान- ऐसी शंका ठीक नहीं है ? क्योंकि, सूत्रका अध्ययन करनेवालोंकी असंख्यातःगुणित-श्रेणीरूपसे प्रतिसमय कर्म-निर्जरा होती है, यह बात अवधि-शानी और मनःपर्यय-ज्ञानियोंको प्रत्यक्षरूपसे उपलब्ध होती है।
शिष्य, प्रतिशिष्यादिकके द्वारा निरन्तर पूजा जाना परंपरा-प्रत्यक्ष हेतु है। परोक्षहेतु भी दो प्रकारका है, एक अभ्युदयसुख और दुसरा नैश्रेयससुख । इनमेंसे साता-वेदनीय आदि प्रशस्त-कर्म-प्रकृतियोंके तीव्र अनुभागके उदयसे उत्पन्न हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि देवसंबन्धी दिव्य-सुख और चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, अर्धमण्डलीक, महामण्डलीक, राजाधिराज, महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि मनुष्य-सम्बन्धी मानुष्य सुखको अभ्युदयसुख कहते हैं।
१ सक्खापच्चवखपरंपञ्चक्खा दोण्णि होदि पच्चक्खा । अण्णाणस्स विणासं णाणदिवायरस्स उप्पत्ती ॥ देवमणुस्सादीहि य सततमभच्चणप्पयाराणी | पडिसमयमसंखेञ्जयगुणसेठिकम्मणिज्जरणं ॥ ति. प. १, ३६-३७.
२ इय सवखापच्चवखं पच्चक्खपरं परं च णादव्वं । सिस्सपडिसिस्सपहुदीहिं सददमब्भच्चणपयारं || दोभेदं च परोक्खं अब्भुदयसोक्खा मोक्खसोक्खाई। सादादिविविहसुपसत्थकम्मतिब्वाणुभागउदएहिं ॥ इंदपडिंददिगिदियतेत्तीससामरसमाणपहुदिसुहं । राजाहिराजमहाराजद्धमंडलिमंडलयाणं ॥ महमंडलियाणं अद्धचकिचकहरितित्थयरसोक्खं । अट्ठारसमेत्ताण सार्मासेणेण भत्तिजुत्ताणं ॥ ति.प. १, ३८-४१.
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