Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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५४ ] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, १. न भवेदस्मदादीनाम् , संजातश्चैतत्प्रसादादित्युपकारापेक्षया वादावर्हन्नमस्कारः क्रियते । न पक्षपातो दोपाय शुभपक्षवृत्तेःश्रेयोहेतुत्वात् । अद्वैतप्रधाने गुणीभूतद्वैते द्वैतनिबन्धनस्य पक्षपातस्यानुपपत्तेश्च । आप्तश्रद्धाया आप्तागमपदार्थविषयश्रद्धाधिक्यनिबन्धनत्वख्यापनार्थं वाहतामादौ नमस्कारः । उक्तं च
___ जस्संतियं धम्मवह णिगच्छे तस्संतियं वेणइयं पउंजे।
सक्कारए तं सिर-पंचएण" कारण वाया मणसा वि णिचं ॥ ३४ ॥ मंगलस्स कारणं गयं ।
संपहि णिमित्तमुच्चदे । कस्स णिमित्तं ? सुत्तावदारस्स । तं कधं जाणिज्जदि. प्रसादसे हमें इस बोधकी प्राप्ति हुई है। इसलिये उपकारकी अपेक्षा भी आदिमें अरिहंतोंको. नमस्कार किया जाता है।
यदि कोई कहे कि इसप्रकार आदिमें अरिहंतोंको नमस्कार करना तो पक्षपात है ? इस पर आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है। किंतु शुभ पक्षमें रहनेसे वह कल्याणका ही कारण है। तथा द्वैतको गौण करके अद्वैतकी प्रधानतासे किये गये नमस्कारमें द्वैतमूलक पक्षपात बन भी तो नहीं सकता है।
विशेषार्थ-पक्षपात वहीं संभव है जहां दो वस्तुओंमेंसे किसी एककी ओर अधिक आकर्षण होता है। परंतु यहां परमेष्ठियोंको नमस्कार करनेमें दृष्टि प्रधानतया गुणोंकी ओर रहती है, वस्तुभेदकी प्रधानता नहीं है। इसलिये यहां पक्षपात किसीप्रकार भी संभव नहीं है।
___ आप्तकी श्रद्धासे ही आप्त, आगम और पदार्थों के विषयमें दृढ श्रद्धा उत्पन्न होती है, इस बातके प्रसिद्ध करनेके लिये भी आदिमें अरिहंतोंको नमस्कार किया गया है। कहा भी है
जिसके समीप धर्म-शान प्राप्त करे उसके समीप विनय युक्त होकर प्रवृत्ति करनी चाहिये । तथा उसका, शिर-पंचक अर्थात् मस्तक, दोनों हाथ और दोनों जंघाएं इन पंचांगोंसे तथा काय, वचन और मनसे निरन्त
र सत्कार करना चाहिये। इसतरह मंगलके कारणका वर्णन समाप्त हुआ। अब निमित्तका कथन करते हैंशंका-यहां पर किसके निमित्तका कथन किया जाता है ?
समाधान-यहां पर सूत्रावतार अर्थात् प्रन्थके प्रारम्भ होनेके निमित्तका वर्णन किया. जाता है।
१ अरहंतुवएसेणं सिद्धा नझंति तेण अरहाई । न वि कोइ य परिसाए पणमित्ता पणमई रन्नो ॥
आ. नि. १०१५. २ आदर्शप्रतिषु गुणिभूतताद्वैते' इति पाठः। ३ आदर्शप्रतिषु · शब्दाधिक्य ' इति पाठः।
४ प्रतिषु 'पंचमेण ' इति पाठः। दोजाणू दोण्णि करा पंचमंगं होइ उत्तमंगं तु । सम्मं संपणिवाओ मेओ पंचंगपणिवाओ॥ पश्चा. वि.३, १५.
५ जस्संतिए धम्मपयाइ सिक्खे तस्संतिए वेणइयं पउंजे । सकारए सिरसा पंजलीओ काम्पिर भो
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