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५२] छक्खंडागमे जीवाणं
[१, १, १. __ सर्वनमस्कारेष्वत्रतनसर्वलोकशब्दावन्तदीपकत्वादध्याहर्तव्यौ सकलक्षेत्रगतत्रिकालगोचराईदादिदेवताप्रणमनार्थम् ।
__ युक्तः प्राप्तात्मस्वरूपाणामर्हतां सिद्धानां च नमस्कारः, नाचार्यादीनामप्राप्तात्मस्वरूपत्वतस्तेषां देवत्वाभावादिति न, देवो हि नाम त्रीणि रत्नानि स्वभेदतोऽनन्तभेदभिन्नानि, तद्विशिष्टो जीवोऽपि देवः अन्यथाशेषजीवानामपि देवत्वापत्तेः । तत आचार्यादयोऽपि देवाः रत्नत्रयास्तित्वं प्रत्यविशेषात् । नाचार्यादिस्थितरत्नानां सिद्धस्थरत्नेभ्यो भेदो रत्नानामाचार्यादिस्थितानामभावापत्तेः । न कारणकार्यत्वाद्भेदः सत्स्वेवाचार्यादिस्थरत्नावयवेष्वन्यस्य तिरोहितस्य रत्नाभोगस्य स्वावरणविगमत आविभौवोपलम्भात् । न
पांच परमेष्ठियोंको नमस्कार करनेमें, इस नमोकार मंत्रमें जो 'सर्व' और 'लोक' पद हैं वे अन्तदीपक हैं, अतः संपूर्ण क्षेत्रमें रहनेवाले त्रिकालवर्ती अरिहंत आदि देवताओंको नमस्कार करनेके लिये उन्हें प्रत्येक नमस्कारात्मक पदके साथ जोड़ लेना चाहिये ।
शंका-जिन्होंने आत्म-स्वरूपको प्राप्त कर लिया है ऐसे अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठीको नमस्कार करना योग्य है, किंतु आचार्यादिक तीन परमेष्ठियोंने आत्म-स्वरूपको प्राप्त नहीं किया है, इसलिये उनमें देवपना नहीं आ सकता है। अतएव उन्हें नमस्कार करना योग्य नहीं है?
___ समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, अपने अपने भेदोंसे अनन्त भेदरूप रत्नत्रय ही देव है, अतएव रत्नत्रयसे युक्त जीव भी देव है, अन्यथा (यदि रत्नत्रयकी अपेक्षा देवपना न माना जाय तो) संपूर्ण जीवोंको देवपना प्राप्त होनेकी आपत्ति आ जायगी। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि आचार्यादिक भी रत्नत्रयके यथायोग्य धारक होनेसे देव हैं, क्योंकि, अरिहंतादिकसे आचार्यादिकमें रत्नत्रयके सद्भावकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । अर्थात् जिसतरह अरिहंत और सिद्धोंके रत्नत्रय पाया जाता है, उसी प्रकार आचार्यादिकके भी रत्नत्रयका सद्भाव पाया जाता है । इसलिये आंशिक रत्नत्रयकी अपेक्षा इनमें भी देवपना बन जाता है। - आचार्यादि परमेष्ठियों में स्थित तीन रत्नोंका सिद्ध परमेष्टीमें स्थित रत्नोंसे भेद भी नहीं है। यदि दोनोंके रत्नत्रयमें सर्वथा भेद मान लिया जावे, तो आचार्यादिकमें स्थित रत्नोंके अभावका प्रसंग आवेगा । अर्थात् जब आचार्यादिकके रत्नत्रय सिद्ध-परमात्माके रत्नत्रयसे भिन्न सिद्ध हो जावेंगे, तो आचार्यादिकके रत्न ही नहीं कहलावेंगे।
आचार्यादिक और सिद्ध-परमेष्ठीके सम्यग्दर्शनादिक रत्नों में कारण-कार्यके भेदसे भी भेद नहीं माना जा सकता है, क्योंकि, आचार्यादिकमें स्थित रत्नेोके अवयोंके रहने पर ही तिरोहित, अर्थात् कर्मपटलोंके कारण पर्यायरूपसे अप्रगट, दूसरे रत्नावयोंका अपने आवरणकर्मके अभाव हो जानेके कारण आविर्भाव पाया जाता है। अर्थात् जैसे जैसे कर्मपटलोंका
कुलानि यानि कार्याणि तेषु साधवी निपुणाः श्रव्यसाधवः सव्यसाधवो वा। एषां च नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात् । भग. १, १, १. टीका.
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