________________
१, १, १.] ___ संत-परूवणाणुयोगद्दारे मयलायरणं तत्कार्यस्य चतुरशीतिलक्षयोन्यात्मकस्य जातिजरामरणोपलक्षितस्य संसारस्यासत्वात्तेषामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच न तयोर्गुणकृत भेद इति चेन्न, आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबन्धकयोः सत्वात् ।
नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाशप्रसङ्गात् । सुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयोदयो दुःखजनकः केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् । किंतु सलेपनिलेपत्वाम्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् ।
शंका-कर्मोंका कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरणसे युक्त संसार है । वह, अघातिया काँके रहने पर भी अरिहंत परमेष्ठीके नहीं पाया जाता है । तथा,
। कर्म आत्माके अनुजीवी गुणोंके घात करने में असमर्थ भी हैं। इसलिये अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठीमें गुणकृत भेद मानना ठीक नहीं है?
समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबन्धक आयुकर्म का उदय और सुखगुणका प्रतिबन्धक वेदनीय कर्मका उदय अरिहंत के पाया जाता है। इसलिये अरिहंत और सिद्धों में गुणकृत भेद मानना ही चाहिये।
शंका-ऊर्ध्वगमन आत्माका गुण नहीं है, क्योंकि, उसे आत्माका गुण मान लेने पर उसके अभावमें आत्माका भी अभाव मानना पड़ेगा। इसीकारण सुख भी आत्माका गुण नहीं है। दूसरे वेदनीय कर्मका उदय केवली में दुखको भी उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा, अर्थत् वेदनीय कर्मको दुःखोत्पादक मान लेने पर, केवली भगवान्के केवलीपना ही नहीं बन सकता है?
समाधान --- यदि ऐसा है तो रहो, अर्थात् रिहत और सिद्धोंमें गुणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होओ, क्योंकि, वह न्यायसंगत है। फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्वकी अपेक्षा और देशभेदकी अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है। ...........
विशेषार्थ- अरिहंत और सिद्धोंमें अनुजीवी गुणोंकी अपेक्षा तो कोई भेद नहीं है। फिर भी प्रतिजीवी गुणोंकी अपेक्षा माना जा सकता है। परंतु प्रतिजीवी गुण आत्म के भावस्वरूप धर्म नहीं होनेसे तत्कृत भेदकी कोई मुख्यता नहीं है। इसलिये सलेपत्व और निर्लेपत्वकी अपेक्षा अथवा देशभेदकी अपेक्षा ही इन दोनों में भेद समझना चाहिये। ऊपर जो ऊर्ध्वगमन और सुख आत्माके गुण नहीं है, इसप्रकारका कथन किया है। वहां पर उन दोनों गुणोंका तात्पर्य प्रतिजीवी गुणोंसे है । ऊर्ध्वगमनसे अवगाहनत्व और सुखसे अव्यावाध गुणका ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि, ग्रन्थान्तरोंमें आयु और वेदनीयके अभावसे होनेवाले जिन गुणों को अवगाहन और अव्याबाध कहा है। उन्हें ही यहां पर ऊर्ध्वगमन और सुखके नामसे, प्रतिपादन किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org