Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४६ ]
क्खंडागमै जीवद्वाणं
[ १, १,१.
' णमो सिद्धाणं ' सिद्धाः निष्ठिताः कृतकृत्याः सिद्धसाध्याः नष्टाष्टकर्माणः । सिद्धानामर्हतां च को भेद इति चेन्न, नष्टाष्टकर्माणः सिद्धाः नष्टघातिकर्माणोऽर्हन्त इति तयोर्भेदः । नष्टेषु घातिकर्मस्वाविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतस्तयोर्भेद इति चेन्न, अघातिकर्मोदयसन्चोपलम्भात् । तानि शुक्लध्यानाग्निनार्धदग्धत्वात्सन्त्यपि न स्वकार्य - कर्तॄणीति चेन्न, पिण्डनिपाताभावान्यथानुपपत्तितः आयुष्यादिशेषकर्मोदय स्तित्वसिद्धेः ।
जिन्होंने संपूर्ण आत्मस्वरूपको प्राप्त कर लिया है और जिन्होंने दुर्नयका अन्त कर दिया है, ऐसे अरिहंत परमेष्ठी होते हैं ॥ २३, २४, २५ ॥
विशेषार्थ - शैवमतमें महादेवको कामदेवका नाश करनेवाला, अपने तीन नेत्रों सकल पदार्थों के सारको जाननेवाला, त्रिपुरका ध्वंस करनेवाला, मुनिवती अर्थात् दिगम्बर, त्रिशूलको धारण करनेवाला और अन्धकासुरके कबन्धवृन्दका हरण करनेवाला माना है । महादेव के इन विशेषणों को लक्ष्यमें रखकर नीचेकी दो गाथाओं की रचना हुई है । जिससे यह प्रगट हो जाता है कि अरिहंत परमेष्ठी ही सच्चे महादेव हैं।
' णमो सिद्धाणं' अर्थात् सिद्धोंको नमस्कार हो । जो निष्ठित अर्थात् पूर्णतः अपने स्वरूपमें स्थित हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने अपने साध्यको सिद्ध कर लिया है, और जिनके ज्ञानावरणादि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं उन्हें सिद्ध कहते हैं ।
शंका- सिद्ध और अरिहंतों में क्या भेद है ?
समाधान- आठ कर्मोंको नष्ट करनेवाले सिद्ध होते हैं, और चार घातिया कर्मोको नष्ट करनेवाले अरिहंत होते हैं । यही उन दोनोंमें भेद है ।
शंका- - चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर अरिहंतोंकी आत्मा के समस्त गुण प्रकट हो जाते हैं, इसलिये सिद्ध और अरिहंत परमेष्ठी में गुणकृत भेद नहीं हो सकता है ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, अरिहंतोंके अघातियाकमका उदय और सत्व दोनों पाये जाते हैं, अतएव इन दोनों परमेष्ठियों में गुणकृत भेद भी है ।
शंका- वे अघातिया कर्म शुक्लध्यानरूप अग्निके द्वारा अधजलेसे हो जाने के कारण उदय और सत्वरूपसे विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं है ?
समाधान - ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, शरीरके पतनका अभाव अन्यथा सिद्ध नहीं होता है, इसलिये अरिहंतों के आयु आदि शेष कर्मोंके उदय और सत्त्वकी सिद्धि हो जाती है । अर्थात् यदि आयु आदि कर्म अपने कार्यमें असमर्थ माने जायं, तो शरीर का पतन हो जाना चाहिये । परंतु शरीर का पतन तो होता नहीं है, इसलिये आयु आदि शेष कर्मोंका कार्य करना सिद्ध है ।
१ सर्वविवर्तोत्तीर्णं यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति । भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक् पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः ॥ पु. सि. ११.. २ दीहकालमये जंतू उसिदो अट्टकम्मसु । सिदे धत्ते णिधत्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ । मूलाचा. ५०७,
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