Book Title: Shatkhandagama Pustak 01
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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१, १, १.]
संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं सादिसपर्यवसितं सम्यग्दर्शनापेक्षया जघन्येनान्तर्मुहर्तकालमुत्कर्षेण षट्पष्ठिसागराः देशोनाः।
कतिविधं मङ्गलम् ? मङ्गलसामान्यात्तदेकविधम् , मुख्यामुख्यभेदतो द्विविधम् , सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेदात्रिविधं मङ्गलम्, धर्मसिद्धसाध्वहद्भेदाच्चतुर्विधम् , ज्ञानदर्शनत्रिगुप्तिभेदात् पञ्चविधम् , 'मो जिणाणं' इत्यादिनानेकविधं वा ।
अथवा मंगलम्हि छ अहियाराएं दंडा वत्तव्या भवंति । तं जहा, मंगलं मंगल-कत्ता मंगल-करणीयं मंगलोवायो मंगल-विहाणं मंगल-फलमिदि। एदेसि छण्हं पि अत्थो उच्चदे । मंगलत्थो पुव्वुतो । मंगल-कत्ता चोदस-विजा-टाग-पारओ आइरियो । मंगल-करणीयं भव्य-जणो । मंगलोवायो तिरयण-साहणाणि । मंगल-विहाणं एय-विहादि पुवुत्तं । मंगलं-फलं देहितो कय-अन्भुदय-णिस्सेयस-सुहाइत्तं । मंगलं सुत्तस्स आदीए पकी जो प्राप्ति हुई है उसका कभी अन्त आनेवाला नहीं है । इसतरह इन दोनों धौंको ही विषय करनेवाले (न एकं गमः नैगमः ) नैगमनयकी अपेक्षा मंगल सादि-अनन्त है।
___ सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा मंगल सादि-सान्त समझना चाहिये । उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर प्रमाण है।
. मंगल कितने प्रकारका है ? मंगल-सामान्यकी अपेक्षा मंगल एक प्रकारका है। मुख्य और गौणके भेदले दो प्रकारका है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्वारित्र के भेदले तीन प्रकारका है। धर्म, सिद्ध साधु और अर्हन्तके भेदसे चार प्रकारका है। शान, दर्शन और तीन गुप्ति के भेदसे पांच प्रकारका है। अथवा 'जिनेन्द्रदेवको नमस्कार हो' इत्यादि रूपसे अनेक प्रकारका है।
___ अथवा, मंगलके विषय में छह अधिकारोंद्वारा दंडाका कथन करना चाहिये । वे इस प्रकार हैं। १ मंगल, २ मंगलकर्ता, ३ मंगलकरणीय, ४ मंगल-उपाय, ५ मंगल-भेद और ६ मंगल-फल। अब इन छह अधिकारों का अर्थ कहते हैं। मंगलका अर्थ तो पहले कहा जा चुका है। चौदह विद्यास्थानोंके पारगामी आचार्य-परमेष्ठी मंगलकर्ता हैं । भव्यजन मंगल करने योग्य हैं। रत्नत्रयकी साधक सामग्री मंगलका उपाय है। एक प्रकारका मंगल, दो प्रकारका मंगल इत्यादि रूपसे मंगलके भेद पहले कह आये हैं। ऊपर कहे हुए मंगलादिकसे प्राप्त होने. वाले अभ्युदय और मोक्ष-सुखके आधीन मंगलका फल है। अर्थात् जितने प्रमाणमें यह जीव मंगलके साधन मिलाता है उतने ही प्रमाणमें उससे जो यथायोग्य अभ्युदय और निःश्रेयस सुख मिलता है वही उसके मंगलका फल है। उक्त मंगल ग्रन्थके आदि, मध्य और अन्तमें कहना
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१ प्रतिषु ' नमो जिनानां ' इति पाठः । २ ' अहियारेहि ' इति पाठः प्रतिभाति ।
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